राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे के हाथों से फिसल चुकी है और इसलिए फिलहाल सिर्फ पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जहां एक महिला मुख्यमंत्री हैं और वे हैं ममता बनर्जी. कुछ साल पहले तक यानी 2011 और 2014 में भारत के 4 राज्यों की जिम्मेदारी महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में थी.
जम्मूकश्मीर में महबूबा मुफ्ती, गुजरात में आनंदीबेन पटेल, राजस्थान में वसुंधरा राजे और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी. इस से पहले तमिलनाडु में जयललिता भी थीं. आजादी के बाद से अब तक भारत में कुल 16 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं जिन में उमा भारती, राबड़ी देवी और शीला दीक्षित, मायावती, जैसे नाम शामिल हैं.
भले ही भारत में महिला मुख्यमंत्रियों की संख्या गिनीचुनी हो, मगर हम इस से इनकार नहीं कर सकते कि ममता बनर्जी, जयललिता और मायावती जैसी महिलाएं सब से ताकतवर मुख्यमंत्रियों में से एक रही हैं. इन का कार्यकाल काफी प्रभावी रहा है. फिर चाहे वह तमिलनाडु में जयललिता की जनवादी योजनाएं हों या उत्तर प्रदेश में मायावती का कानूनव्यवस्था को काबू में करना और ममता का हर दिल पर राज करना.
मगर जब बात उन के द्वारा महिलाओं के हित में किए जाने वाले कामों की होती है तो हमें काफी सोचना पड़ता है. दरअसल, इस क्षेत्र में उन्होंने कुछ याद रखने लायक किया ही नहीं. यह बात सिर्फ मुख्यमंत्रियों या प्रधानमंत्री के ओहदे पर पहुंची महिला शख्सियतों की ही नहीं है बल्कि हर उस महिला नेता की है जो सत्ता पर आसीन होने के बावजूद महिला हित की बातें नहीं उठाती.
प्रभावी और बराबरी का हक
एक सामान्य सोच यह है कि यदि महिलाएं शीर्ष पदों पर होंगी तो महिलाओं के हित में फैसले लेंगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. इंदिरा गांधी जब देश की प्रधानमंत्री थीं तब कोई क्रांति नहीं आ गई या जिन राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री थीं वहां महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हो गई ऐसा भी नहीं है. हम यह भी नहीं कह सकते कि पुरुष राजनेता महिलाओं के हक में फैसले ले ही नहीं सकते. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को महिला नेताओं द्वारा उठाया जाना ज्यादा प्रभावी और बराबरी का हक देने वाला हो सकता है.