“मेरे वहां जाने से कुछ दिनों पहले ही अपने बेटे कार्तिक की फ़ीस और बुक्स खरीदने के बहाने पैसे मांगे थे मुझ से उन लोगों ने. वहां जा कर देखा तो कार्तिक के लिए एक नामी ब्रैंड का महंगा मोबाइल फ़ोन खरीदा हुआ था. मैं ने एतराज़ जताया तो प्रियंका दीदी बोलीं कि यह तो इसे गाने की एक प्रतियोगिता जीतने पर मिला है. मुकेश जीजाजी ने कार भी तभी खरीदी थी. क्या ज़रूरत थी कार लेने की जब फ़ीस तक देने को पैसे नहीं थे उन के पास. मन ही मन मुझे बहुत गुस्सा आया था. मैं समझ गया था कि इन्हें अपने सुखद जीवन के लिए जो पैसा चाहिए उसे ये दोनों इमोशनल ब्लैकमेल कर हासिल कर रहे हैं. उसी दिन मैं ने फ़ैसला कर लिया था कि रिश्तों को केवल सम्मान दूंगा भविष्य में.” आप ने यह मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

“मैं सही समय की प्रतीक्षा में था.”

“मतलब?”

“देखो एकता, मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं कि तुम सत्संग में जाती हो. मैं जानता हूं कि वहां धर्म, कर्म के नाम से डराया जाता है. समयसमय पर दान का महत्त्व बता रुपएपैसे ऐंठने का चक्रव्यूह रचा जाता है. खूनपसीने की कमाई क्या निठल्ले लोगों पर उड़ानी चाहिए, फिर वह चाहे मेरी बहन हो या कोई साधु बाबा?”

प्रतीक की बात सुन एकता किसी अपराधी की तरह स्पष्टीकरण देते हुए बोली, “मैं तो इसलिए दान देने की बात कहा करती थी कि सुना था इस से भला होता है.”

“कैसा भला? क्या उसी डर से दूर कर देना भला कहा जाएगा जो डर ज़बरदस्ती पहले मन में बैठाया जाताहै?”

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