आस्था शब्द लोगों के लिए अनंत क्षीरसागर के मंथन से निकले अमृतकलश की तरह है, जिस में अपनी श्रद्धा, विश्वास, दृढ़संकल्प, विशुद्ध वैचारिक जीवनमूल्यों की समृद्धि युक्त व्यक्तित्व के अनेक बहुमूल्य रत्न समाहित हैं. मगर आस्था प्रदूषण व कुरीतियों को जन्म देती है. ज्यादातर लोग जादूटोना, तंत्रमंत्र, पशुबलि, नरबलि, शारीरिकमानसिक यातना, प्रताड़ना, ढोंगी गुरुओं के चंगुल में अनर्गल पुरानी परंपरागत प्रथाओं से जुड़ेजकड़े रहते हैं. तीर्थस्थलों की आड़ में यात्रियों से मनमरजी से पैसा ऐंठ कर उन्हें लूटने जैसी बातें ही देखनेसुनने को मिलती हैं.
आस्था से अव्यवस्था
तीर्थस्थलों की गंदगी, प्रदूषण, अव्यवस्था देश के लिए एक बड़ी चुनौती है, जिस गंगा में एक डुबकी मात्र से 7 जन्मों के पापों से मुक्ति का बखान किया जाता है वह गंगाजल इतना प्रदूषित है कि उस की 2 बूंदें भी मुंह में नहीं रखी जा सकतीं. आस्था में लोग बिलकुल विवेकहीन हो जाते हैं. परिजनों की अस्थियों को गंगाजी को समर्पित कर अपनेआप को धन्य समझते हैं. सारी पूजासामग्री तथा अन्य गंदगी से गंगा को गंदा कर अपने घर लौट आते हैं. शासनप्रशासन सभी आंख बंद कर लेते हैं कि सांसारिक जन्ममरण के चक्र से उन की मुक्ति तय हो चुकी है. आस्था या अध्यात्म से अभिभूत स्वच्छता, ईमानदारी, अनुशासन, धन के लालच में लूटपाट, चोरी, ठगी, खाद्यपदार्थों की मिलावट आदि कलुषित भावना को त्याग कर गंगा स्नान से शुद्धि कर कोई घर लौटता है.
विश्वव्यापी है धर्म का डर
धर्मांधता की प्रवृत्ति केवल भारत में ही नहीं, विश्व के हर देश में, हर जगह, हर धर्म, संप्रदाय, कुनबे, कबीले, पढ़ेलिखे, अनपढ़गंवार, अमीर, गरीब सभी में दिखाई देती है. धर्म के नाम पर डर पैदा करना, तत्पश्चात उस का अनुसरण करना व करवाना पहला कदम होता है. बिना कर्म किए मनोवांछित कामना की पूर्ति हो जाने की प्रतीक्षा के मोह से व्यक्ति उस से लिपटा रहता है. जबकि प्रगति के लिए एक वैज्ञानिक, कठोर व संपूर्ण संकल्प जरूरी है. मन की आंखें खोलने के लिए तथा सच को पहचानने के लिए अध्यात्म व आस्था के स्वच्छनिर्मल स्वभाव को अंगीकार करने के लिए विवेकपूर्ण आत्मविश्वास जरूरी है. अंधविश्वास तथा आस्था जनजीवन के लिए बहुत घातक हैं. इन्हीं से समाज में भेदभाव, असमानता, रागद्वेष, कटुता, बिखराव, अशांति है.