कहानी- किरन पांडेय
पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुशा को जब रागिनी के गांव का पता मिला तो उसे लगा जैसे कोई खजाना हाथ लग गया है. अनुशा को अतीत में रागिनी के कहे शब्द याद आ गए, ‘मेरे पति को अपने गांव से बड़ा लगाव है. गांव से नाता बना रहे, इस के लिए वह साल में 1-2 बार गांव जरूर जाते हैं.’
यही सोच कर अनुशा खुश थी कि अब वह रागिनी को पत्र लिख सकती है और जब भी उस के पति गांव जाएंगे तो वहां भेजा उस का पत्र उन्हें जरूर मिल जाएगा. रागिनी को कितना आश्चर्य होगा जब वह इस चौंका देने वाली खबर के बारे में जानेगी.
अनुशा के दिमाग में रागिनी की चाची के साथ घटित हुआ वह हादसा तसवीर की भांति घूमने लगा जिसे रागिनी ने कालिज के दिनों में उसे बताया था.
मैं और रागिनी बी.ए. कर रही थीं. दशहरे की छुट्टियां होने वाली थीं. इसलिए ज्यादातर अध्यापिकाएं घर चली गई थीं. उस दिन खाली पीरियड में हम दोनों कालिज कैंपस के लान में बैठी थीं. मैं ने रागिनी से पूछा, ‘आज तो तुम भी व्रत होगी?’
रागिनी ने बड़े रूखेपन से कहा था, ‘नहीं, घर में बस, मुझे छोड़ कर सभी का व्रत है. मेरी तो धर्मकर्म से आस्था ही मर गई है.’
‘क्यों, ऐसा क्या हो गया है?’ मैं ने हंसते हुए पूछा तो रागिनी और भी गंभीर हो उठी और बोली, ‘अनुशा, मेरे यहां एक बड़ी दर्दनाक घटना घट चुकी है जिस की चर्चा भी अब घर में नहीं होती.’
मैं उत्सुकता से रागिनी को एकटक देखे जा रही थी. उस ने कहा, ‘मेरी चाची को तो तुम ने देखा है. वह अपनी मां और छोटी बहन के साथ विंध्याचल गई थीं. चाची की बहन सुशीला अविवाहित थी लेकिन पूजापाठ, धर्मकर्म में उस की बड़ी रुचि थी. वे तीनों कई दिनों तक विंध्याचल में एक पंडे के घर रुकी रहीं. रोज गंगास्नान, पूजन, दर्शन और पंडे के यहां रात्रिनिवास. उन का यही क्रम चल रहा था.