पढ़ाई चाहे आईआईटी में हो, आईआईएम में, किसी कालेज में या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में, सस्ती ही होनी चाहिए. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कट्टरपंथियों के प्रवेश को रोकने में असफल रहने पर केंद्र सकरार अब उस की फीस बढ़ा कर वहां से गरीब होनहार छात्रों को निकालना चाह रही है ताकि वहां केवल अमीर घरों के, जो आमतौर पर धर्मभीरु ही होते हैं, बचें और पुरातनपंथी गुणगान गाना शुरू कर दें.
शिक्षा का व्यापारीकरण कर के देशभर में धर्म को स्कूलों में पिछले दरवाजे से पहले ही दाखिला दिया जा चुका है. जातीय व्यवस्था, ऊंचनीच, धार्मिक भेदभाव, रीतिरिवाजों का अंधसमर्थन, पूजापाठ करने वाले सैकड़ों प्राइवेट स्कूलों के नाम ही देवीदेवताओं पर हैं.वहां से निकल रहे छात्र 12-13 साल पैसा तो जम कर खर्च करते हैं पर तार्किक व अलग सोच या ज्ञान से दूर रह कर रट्टूपीर बन कर रोबोटों की तरह डिगरियां लिए घूम रहे हैं.
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अमीरों के ये बच्चे बाद में अच्छे कालेजों में नहीं पहुंच पाते और जवाहरलाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालयों में तो हरगिज नहीं. उन का काम सिर्फ मातापिता का मेहनत से कमाया पैसा बरबाद करना रह जाता है.
सरकारी स्कूलों से आने वाले बच्चे अभावों में पलते हैं पर उन्हें जीवन ठोकरों से बहुत कुछ सिखा रहा है. उन में कुछ करने की तमन्ना होती है, इसलिए वे प्रतियोगी परीक्षाओं पर कब्जा कर रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालयों में वे प्रवेश ले पाते हैं, क्योंकि सरकारी स्कूली शिक्षा की तरह ये सस्ते हैं. इन से एक पूरी व्यवस्था को चिढ़ होना स्वाभाविक ही है. भारत सरकार तो गुरुकुल चाहती है जहां छात्र नहीं शिष्य आएं जो भरपूर दक्षिणा दें, गुरुसेवा करें और धर्म की रक्षा करें.