लेखक- रमेश चंद्र छबीला
तभी एक शिष्य अमित के पास आया और बोला, ‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है.’’
अमित एकदम उठा और शिष्य के साथ चल दिया.
गुरुजी के कमरे में पहुंच कर अमित हाथ जोड़ कर बैठ गया.
सामने बैठे गुरुजी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अमित? मेनका नहीं आई?’’
‘‘गुरुजी, मैं ने उसे बहुत कहा, पर वह नहीं आई. कहने लगी कि मैं माफी नहीं मांगूंगी. इस पर मैं ने उसे थप्पड़ भी मार दिया और वह गुस्से में बेटी के साथ कहीं चली गई.’’
‘‘चली गई? कहां चली गई? इस तरह अपनी पत्नी से हमें अपमानित करा कर तुम ने उसे जानबूझ कर यहां से भेजा है. यह तुम ने अच्छा नहीं किया,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखा.
अमित घबरा गया. वह गुरुजी के चरणों में सिर रख कर बोला, ‘‘मैं ने उसे नहीं भेजा गुरुजी. मैं सच कह रहा हूं. मेरा विश्वास कीजिए.’’
‘‘विश्वास... कैसा विश्वास? मुझे तुम जैसे अविश्वासी भक्त नहीं चाहिए. जिन की पत्नी अपने पति की बात न मानती हो. हम ने मेनका को इसलिए बुलाया था कि उसे भी आशीर्वाद मिल जाता.’’
‘‘गुरुजी, आप कहें तो मैं उसे छोड़ दूं. उस से तलाक ले लूं.’’
‘‘हम कुछ नहीं कहेंगे. जो तुम्हारी इच्छा हो करो...’’ गुरुजी ने नाराजगी
भरी आवाज में कहा, ‘‘अब तुम जा सकते हो.’’
‘‘गुरुजी, मेनका की ओर से मैं माफी मांगता हूं.’’
‘‘ऐसा नहीं होता कि किसी के अच्छेबुरे कर्मों का फल किसी दूसरे को दिया जाए. तुम अपने कमरे में जाओ,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखते हुए कहा.
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