वह अनजान बनने की कोशिश करने लगा.
‘‘मासूम बन कर सुनीता को बरगलाओ, मुझे नहीं. मैं पुरुषों की नसनस से वाकिफ हूं. पिछले एक हफ्ते से नैपकिन लाने के लिए कह रही हूं, लाए?’’
‘‘मैं भूल गया था.’’
‘‘आजकल तो सिर्फ सुनीता की जरूरतों के अलावा कुछ याद नहीं रहता है तुम को.’’
‘‘बारबार उस का नाम मत लो. वरना...’’ सुधीर ने दांत पीसे. बात बढ़ती देख वह कमरे से बाहर निकल गया.
कायर पुरुषों की यही पहचान होती है. वे मुंह छिपा कर भागने में ही भलाई समझते हैं. सुधीर अपनी मां के कमरे में आया.
‘‘बहुत बदतमीज है,’’ मेरी सास बोलीं, ‘‘चार दिन के लिए आई है उसे भी चैन से रहने नहीं देती. वह क्या सोचेगी,’’ सिर पर हाथ रख कर वे बैठ गईं. न जाने क्या सोच कर वे थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आईं.
‘‘क्यों बहू, तुम्हारे संस्कार यही सिखाते हैं कि अतिथियों के साथ बुरा सलूक करो?’’
‘‘आप का बेटा अपनी पत्नी के साथ क्या कर रहा है, क्या आप ने जानने की कोशिश की?’’
‘‘क्या कर रहा है?’’
‘‘क्या नहीं कर रहा है. कुछ भी तो नहीं छिपा है आप से. सुनीता को सिरमाथे पर बिठाया जा रहा है. वहीं मेरी तरफ ताकने तक की फुरसत नहीं है किसी के पास.’’
‘‘यह तुम्हारा वहम है.’’
‘‘हकीकत है, मांजी.’’
‘‘हकीकत ही सही. इस के लिए तुम जिम्मेदार हो.’’
‘‘सुनीता को मैं यहां लाई?’’
‘‘बेवजह उसे बीच में मत घसीटो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि पतिपत्नी के बीच रिश्तों की डोर औलाद से मजबूत होती है.’’
‘‘तो क्या यह संभावना सुनीता में देखी जा रही है?’’
‘‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे.’’