लेखक - पुष्कर पुष्प
मनचाहा शिकार तो मिल गया, लेकिन शिकारी थक कर चूर हो चुका था. एक तो थकान, दूसरे ढलती सांझ और तीसरे सात कोस का सफर. उस में भी दो कोस पहाड़ी चढ़ाई, फिर उतनी ही ढलान. समर सिंह ने पहाड़ी के पीछे डूबते सूरज पर निगाह डाल कर घोड़े की गर्दन पर हाथ फेरा. फिर घोड़े की लगाम थामे खड़े सरदार जुझार सिंह को टोकते हुए थके से स्वर में बोले, ‘‘अंगअंग दुख रहा है, सरदार! ...ऊपर से सूरज भी पीठ दिखा गया. धुंधलका घिरने वाला है, अंधेरे में कैसे पार करेंगे इस पहाड़ी को?’’
जुझार सिंह थके योद्धा की तरह सामने सीना ताने खड़ी पहाड़ी पर नजर डालते हुए बोले, ‘‘थक तो हम सभी गए हैं, हुकुम. सफर जारी रखा, तो और भी बुरा हाल हो जाएगा. अंधेरे में रास्ता भटक गए तो अलग मुसीबत. मेरे ख्याल से तो...’’ जुझार सिंह की बात का आशय समझते हुए समर सिंह बोले, ‘‘लेकिन इस बियाबान जंगल में रात कैसे कटेगी? हम लोगों के पास तो कोई साधन भी नहीं है. ऊपर से जंगली जानवारों का अलग डर.’’
पीछे खड़े सैनिक समर सिंह और जुझार सिंह की बातें सुन रहे थे. उन दोनों को चिंतित देख एक सैनिक अपने घोड़े से उतरकर सरदार के पास आया और सिर झुका कर खड़ा हो गया. सरदार समझ गए, सैनिक कुछ कहना चाहता है. उन्होंने पूछा, तो सैनिक उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘सरदार, अगर रात इधर ही गुजारनी है, तो सारा बंदोबस्त हो सकता है. आप हुक्म करें.’’
‘‘क्या बंदोबस्त हो सकता है, मोहकम सिंह?’’ जुझार सिंह ने सवाल किया, तो सैनिक दाईं ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘इस छोटी सी पहाड़ी के पार मेरा गांव है. बड़ी खूबसूरत रमणीक जगह है उस पार. इस पहाड़ी को पार करने के लिए हमें सिर्फ एक कोस चलना पड़ेगा. आधे कोस की चढ़ाई और उस ओर की आधे कोस ढलान. रास्ता बिलकुल साफ है. अंधेरा घिरने से पहले हम गांव पहुंच जाएंगे. मेरे गांव में हुकुम को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’