कारण स्पष्ट था. भारत में ही राहुल की पीढ़ी की लड़कियों में अब उन्हें भारतीयता के लक्षण कम दिखाईर् पड़ने लगे थे. विशेषकर जिस आर्थिक व सामाजिक वर्ग के वे थे उस में लड़कियों के अभिभावक लड़कों और लड़कियों में कोई अंतर तो मानते नहीं थे. इसलिए यदि नई पीढ़ी के लड़के बहुत उन्मुक्त व्यवहार और खुली सोच के सांचे में ढल गए थे तो लड़कियां किसी भी तरह से किसी भी क्षेत्र में उन से पीछे रहने को तैयार नहीं थीं.
लड़के हो या लड़कियां, जींस अब पूरी नई पीढ़ी की यूनिफौर्म बन चुकी थी और लड़कियां इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट, एकौउंटैंसी, मैडिसिन आदि किसी भी प्रोफैशनल पढ़ाई के क्षेत्र से ले कर खेलकूद आदि में भी उतनी ही प्रतिभा का परिचय दे रही थीं जितने लड़के.
उन के अनेक परिचितों और मित्रों की बेटियां उन के बेटी की तरह ही विदेशों में ऊंची शिक्षा ले कर, अकेले रह कर, बड़ीबड़ी नौकरियां कर रही थीं. इसलिए कुमार साहब के मन में अपनी होने वाली बहू को ले कर कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं था. जिस दिन राहुल आईआईटी से बीटेक करने के बाद अमेरिका के एक कालेज में एमबीए करने के लिए एक सशक्त छात्रवृत्ति पा कर अपनी मां के चेहरे को आंसुओं से भिगो कर और गर्व से मांबाप दोनों की उदास आंखों में चमक भर के गया था उसी दिन से कुमार साहब को आभास हो गया था कि अब तो राहुल की भैंस गई पानी में.
पढ़ाई पूरी करने के बाद अमेरिका में ही किसी ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी पाने के बाद राहुल वहीं का हो कर रह जाएगा, इस की पूरीपूरी संभावना थी. पर कुमार का दृष्टिकोण इस मामले में बड़ा उदार था ‘राहुल जहां रहे खुश रहे, उन्हें और क्या चाहिए.’ रहा सवाल उस का किसी अमेरिकन या चीनी, जरमन या कोरियन लड़की के प्रेमपाश में बंध कर उस से विवाह करने का, तो देरसवेर राहुल का ग्रीनकार्ड से अमेरिकी नागरिकता की तरफ छलांग लगाना लगभग निश्चित सा दिख रहा था.