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लेखक- निर्मल कुमार

पिंकी के कालेज जाने के बाद बादल घिर आए. आज फिर वह कजली से लड़ी थी. इसी बात को ले कर कजली दुखी थी. कपड़े धोते हुए कई बार उसे रुलाई आई. उस से खाना भी नहीं खाया गया और वह बैडरूम में चली गई. कुछ देर बादलों के घुमड़ते शोर और कजराए नभ ने उस के मन को बहलाए रखा. मगर जैसे ही बूंदें गिरने लगीं उसे फिर पिंकी की बदतमीजी याद आई कि मैं उस की मां हूं और वह मुझे ऐसे झिड़कती है जैसे मैं उस की नौकरानी हूं. पिंकी का व्यवहार अपनी मां के प्रति अच्छा नहीं था. कई बार कजली ने अपने पति से रोते हुए शिकायत की थी. जवाब में वे एक उदास, बेबस सी गहरी सांस लेते और पूरी समस्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसे धीरज न खोने की राय देते, ‘पुराने मूल्य टूट रहे हैं, नए बन नहीं पाए. नई पीढ़ी इसी दोहरे अंधेरे से घिरी है. अगर हम उन्हें डांटेंगे तो वे भयाक्रांत हो, नए मूल्य ढूंढ़ना छोड़ देंगे. उन का व्यक्तित्व पहले ही मूल्यहीनता की कमी के एहसास से हीनताग्रस्त है. डांटफटकार से वे टूट जाएंगे. उन का विकास रुक जाएगा. बेहतर यही है कि उन के साथ समान स्तर पर कथोपकथन चलता रहे. इस से उन्हें अपने लिए नए मूल्य ढूंढ़ने में मदद मिलेगी.’

पति की इस कमजोर करती, असहाय बनाती प्रतिक्रिया को याद कर कजली की आंखों से विवशता के आंसू बहने लगे. उसे अपना छोटा बेटा कोको याद आया, जो स्कूल गया हुआ था. बड़ा बेटा आईआईटी में इंजीनियरिंग कर रहा था. वह पिंकी की तरह दुर्व्यवहार तो नहीं करता था मगर उस में भी आधुनिक युवावर्ग की असहनशीलता और वह पुरानेपन के प्रति निरादर था. केवल नन्हा कोको ही ऐसा था जो नए और पुराने मूल्यों के भेद से अनभिज्ञ था, जो सिर्फ यह देखता था कि मां की प्यारी आंखें ढुलक रही हैं और यह वह देख नहीं सकता था क्योंकि मां के आंसू देख उस का उदर रोता था. वह अपने मायूस हाथों से उस के आंसू पोंछते हुए उस के गले से लग जाता था  बात कुछ नहीं थी. बात कभी भी कोई खास नहीं होती थी. बस, छोटीछोटी बातें थीं जिन्हें ले कर अकसर पिंकी दुर्व्यवहार करती. आज वह देर तक सोती रही थी. कजली ने उसे जगाया तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘उफ, मां, तुम इतनी अशिष्ट क्यों हो गई हो?’’

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