उस दिन अपराजिता शाम को बैंक से थकीहारी वापस आई ही थी कि बड़े भाई ने उस के पास आ कर बैठते हुए उस का पर्स उठा लिया और उस में कुछ तलाशने लगा.
यह देख कर वह चिल्लाई, ‘‘भैया, मेरा पर्स रखो. क्या चाहिए आप को?’’
‘‘छुटकी, मुझे 3 हजार रुपए चाहिए. ये रहे 3 हजार,’’ अपराजिता के पर्स में रखे रुपयों की एक गड्डी से 3 हजार रुपए गिन कर निकालते हुए बड़े भाई ने कहा.
‘‘भैया...’’ वह क्रोध से चीखी, ‘‘ये रुपए मुझे मां को देने हैं घर खर्च के लिए. इन्हें मत लो,’’ लेकिन उस के चिल्लाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वह कुटिल भाव से मुसकराते हुए कमरे से बाहर निकल गया, यह कहते हुए, ‘‘इतने रुपए कमाती है. थोड़े हमें दे देगी तो तेरा क्या घट जाएगा?’’
भाई की बात ने उस के क्रोध में आहुति
का काम किया और वह गुस्से में फनफनाती
हुई फिर से चीखी, ‘‘आप दोनों मौजमस्ती
करते रहो, यारीदोस्ती में पैसे उड़ाते रहो और
मैं आप को पैसे देती रहूं? खान लग रही है न
मेरे पास?’’
तभी मां हमेशा की तरह बेटे के पक्ष में बोल पड़ीं, ‘‘अरे छुटकी, क्या हुआ जो थोड़े रुपए ले गया तो? भाई है तेरा, कल को वह कमाएगा तो तू ले लेना उस से.’’
‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा मां... इन दोनों के यही लक्षण रहे तो इन की नौकरी तो लगने से रही.’’
‘‘तू तो जब बोलेगी अशुभ ही बोलेगी. ऐसी बहन न देखी मैं ने जो भाइयों को कोसे. यह तू अच्छा नहीं कर रही छुटकी.’’
मां का यों भाई का गलत बात पर पक्ष लेते देख उस की आंखों में पानी भर आया. तभी छोटा भाई आ कर बोला, ‘‘ज्यादा हवा में मत उड़ छुटकी. दो पैसे क्या कमाने लगी है, खुद को तीस मार खां समझने लगी है. अरे तू इस घर में रहती है, खाती है तो क्या इस घर के लिए, हमारे लिए तेरा कोई फर्ज नहीं बनता?’’