‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.
‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.
‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.
‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.
‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.
‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.
विभा देर तक सुबकती रही.
अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.