लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव
‘‘भाभी, चाय पी लो,’’ नीचे से केतकी की चीखती आवाज से उस की आंख खुल गई. घड़ी देखी, सिर्फ 7 बजे थे और इतने गुस्सेभरी आवाज.
करण पास ही बेखबर सोया था. वह भी उठते हुए यही बोला, ‘‘अरे, 7 बज गए, उठोउठो. केतकी ने चाय बना ली है.’’
‘‘एक चाय ही तो बनाई है. बाकी घर के सारे काम मैं ही तो अकेले करती हूं.’’
‘‘सुबहसुबह तुम बहस क्यों करने लग जाती हो. तुम्हें उठा रहे हैं तो उठ जाओ,’’ करण उनींदी में बोला और फिर चादर तान कर सो गया.
अंदर तक सुलग गई मैं. जब रात में अपनी इच्छापूर्ति करनी होती है तब नहीं सोचते कि इसे सोने दूं, क्योंकि सुबह इसे उठना है. तब तो कहते हैं, अभी तो हमारी शादी को कुल 2 महीने ही हुए हैं. रात की बात सुबह जगाते समय कभी याद नहीं रहती. रोजाना की तरह नफरत दिल में लिए नाइटी संभाल कर मैं सीधा बाथरूम में घुस गई. बंदिशें इतनी कि बिना नहाएधोए, साफ सूट पहने बिना सास के पास नहीं जा सकती.
जल्दीजल्दी नहाधो कर नीचे पहुंची. सास के पांव छुए. वे ?बजाय आशीर्वाद देने के, घड़ी देखने लगीं. गुस्सा तो इतना आया कि घड़ी उखाड़ कर फेंक दूं या सास की गरदन मरोड़ दूं. शुरूशुरू में मायके में मेरी भाभी जब 8 बजे उठ कर नीचे आती थीं तो कभीकभार मम्मी कह देती थीं, ‘बेटा, थोड़ा जल्दी उठने की आदत डालो.’ इस पर भाभी का खिसियाया चेहरा देख कर, एक दिन मैं बोल पड़ी थी, ‘मम्मी, भाभी को गुस्सा आ रहा है. इन्हें कुछ मत कहो.’ भाभी हड़बड़ा गई थीं. तब मुझे भाभी पर व्यंग्य करने में मजा आया था और अपनी मम्मी की नरमी पर गुस्सा.