लेखिका- प्रेमलता यदु
"अब क्या बताऊं सुषमा, तुम तो जानती ही हो नैंसी को, उस का मन कहां लगता है इन सब में, उस से तो बस फैशन करवा लो, बिना मिर्चमसाला के खाना बनवा लो या फिर इधरउधर घूमने को कह दो, एक पैर में खड़ी रहती है," नलिनी दुखी और शिकायती अंदाज में बोली "अच्छा छोड़ इन सब बातों को, ठीक ही है जो वह नहीं आ रही है. वैसे भी मुझे तुम्हें बहुत जरूरी बात बतानी है, जो मैं उस के सामने तुम्हें बता नहीं पाऊंगी. अब तुम जल्दी बाहर मिलो मैं फोन रखती हूं," अपनी सारी बातें रहस्यमय तरीके से कहने के बाद सुषमा ने फोन रख दिया.
सोसाइटी के मंदिर प्रांगण में मेला सा लगा हुआ था. खूब धूम मची हुई थी, यह एक प्रकार का साप्ताहिक मेला का आयोजन जैसा ही था. हफ्ते में 1 दिन भजनकीर्तन सभी महिलाओं के मनोरंजन के साथ ही साथ सुसंस्कारी होने का परिचायक भी था.
आसपास के सोसाइटी की औरतें भी पूरे मेकअप में इतना सजधज कर आई थीं जैसे शादीब्याह में आई हों या फिर कोई फैशन शो चल रहा हो. छोटेछोटे समूह बना कर सभी औरतें एकदूसरे से गुफ्तगू करने में लगी हुई थीं. उन में से कोई अपने कान का नया झुमका दिखा रही थी, तो कोई अपनी साड़ी पर इतरा रही थी, कोई अपनी सास की दुष्टता के कर्मकांड बयां कर रही थी. कोई अपनी बहू के आतंक पर रो रही थी, तो कोई अपने ही घर की कहानी सुना रही थी. सभी अपनीअपनी गाथाएं सुनाने में लगी हुई थीं.