‘‘कहां मर गई हो, कितनी देर से आवाज लगा रहा हूं. जिंदा भी हो या मर गईं?’’ रघुवीर भैया एक ही गति से निरंतर चिल्ला रहे थे.
‘‘क्या चाहिए आप को?’’ गीले हाथ पोंछते हुए इंदु कमरे में आ कर बोली.
‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सोचा था, पढ़ीलिखी बीवी घर भी संभालेगी और मेरी सेवा भी करेगी, लेकिन यहां तो महारानीजी के नखरे ही पूरे नहीं होते. सुबह से साजशृंगार यों शुरू होता है जैसे किसी कोठे पर बैठने जा रही हो,’’ कितनी देर तक भुनभुनाते रहे.
थोड़ी देर बाद फिर चीखे, ‘‘नाश्ता तैयार है कि होटल से मंगवाऊं?’’
इंदु गरमगरम परांठे ले आई. तभी ऐसा लगा, जैसे कोई चीज उन्होंने दीवार पर दे मारी हो. शायद कांच की प्लेट थी.
‘‘पूरी नमक की थैली उड़ेल दी है परांठे में. आदमी भूखा चला जाए तो ठूंसठूंस कर खाएगी खुद.’’
‘‘अच्छा, सादा परांठा ले आती हूं,’’ इंदु की आवाज में कंपन था.
‘‘नहीं चाहिए, कुछ नहीं चाहिए. अब शाम को मैं इस घर में आऊंगा ही नहीं.’’
‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? यों भूखे घर से जाएंगे तो मेरे गले से तो एक निवाला भी नहीं उतरेगा.’’
‘‘मरो जा कर,’’ उन्होंने तमाचा इंदु के गाल पर रसीद कर दिया और पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर गाड़ी यों स्टार्ट की जैसे किसी जंग पर जाना हो. ऐसे मौके पर अकसर वे गाड़ी तेज गति से ही चलाते थे.
अम्माजी सहित पूरा परिवार सिमट आया था आंगन में. नन्हा सौरभ मेरे पल्लू से मुंह छिपाए खड़ा था. अकसर रघुवीर भैया की चीखें सुन कर परिवार के सदस्य तो क्या, आसपड़ोस के लोग भी जमा हो जाते. पर क्या मजाल जो कोई एक शब्द भी कह जाए.