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‘‘दीपकजी एक महान हस्ती हैं. उन की प्रशंसा करना सूरज को दीया दिखाना है. ऐसे महान व्यक्ति दुनिया में विरले ही होते हैं. औफिस के हरेक कर्मचारी की उन्होंने किसी न किसी रूप में मदद की है. हम सब उन के ऋ णी हैं. हम उन की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हैं,’’ स्टाफ के सदस्य अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे थे. इस दौरान सदस्यों के बीच बैठी प्रभा की ओर दीपकजी ने कनखियों से देखा. ऐसे समय भी उस के चेहरे का भावहीन होना दीपकजी को बेहद खला, पर उन्होंने उसे नजर अंदाज कर दिया.

स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था, परंतु प्रभा के हृदय को कहीं से भी छू न सका.

‘‘क्यों, कैसा लगा?’’ लौटते समय दीपकजी ने आखिर प्रभा से पूछ ही लिया. ‘‘बुरा लगने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ प्रभा ने सपाट स्वर में उत्तर दिया. ‘‘सीधी तरह नहीं कह सकतीं कि अच्छा लगा. हुंह, घर की मुरगी दाल बराबर,’’ दीपकजी के यह कहने पर प्रभा मौन रही.

अपनी खीझ मिटाने के लिए घर आ कर दीपकजी फौरन बच्चों के कमरे में गए. चीखते हुए टीवी की आवाज पहले धीमी की, फिर बच्चों को सिलसिलेवार विदाई समारोह के बारे में बताने लगे, ‘‘अपनी मां से पूछो, कितना शानदार विदाई समारोह था. अपनी पूरी नौकरी में मैं ने इतना सम्मान किसी के लिए नहीं देखा.’’

‘‘पापाजी, आप महान हैं,’’ कहते हुए बेटे ने नाटकीय मुद्रा में झक कर पिता का अभिवादन किया. ‘‘दुनिया कहती है, ऐसा पिता सब को मिले, पर मैं कहती हूं ऐसा पिता किसी को न मिले. हां,  इस मामले में मैं पक्की स्वार्थी हूं,’’ बेटी ने पापा  के गले में बांहें डालते  हुए कहा.

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