उस रात वह एकदो बार निन्नी के कमरे में गई पर चुपचाप लौट आई. मन कह रहा था, माफी मांग लूं, मस्तिष्क कह रहा था, कैसे, क्यों? यह सोच तो घुट्टी में पिलाई गई है. तू लड़की है, औरत है, तेरा वजूद कुछ नहीं. यह आभास तो पलपल दिलाया गया है. बचपन से पढ़ाया गया है.
सुबह गार्गी नीचे आ कर बैठ तो गई किंतु बारबार रात की अधूरी नींद उस की पलकों पर आ बैठती.
बच्चे स्कूल चले गए, निन्नी अपने काम पर. यहां मौसम का तो यह हाल है, न सुबह होती है न दोपहर, बस सांझ ही सांझ रहती है. कभीकभी बादलों के बीच से थोड़ा सा सूरज का मुंह बाहर निकलता है तब पतलीपतली छाया पूर्व से पश्चिम की ओर भागने लगती है. तब होंठों पर दबी सी मुसकराहट आ मिलती है.
घर पर काम भी अधिक न था. जितना गार्गी को समझ आता, कर लेती थी. गार्गी का मन अपने घर जाने को उचाट होने लगा था. मांबेटी में संकोच और तनाव की चट्टान खड़ी हो गई. दोनों अपनीअपनी चुप्पी की रेखाएं खींचे दिन काट रही थीं.
एक दिन बच्चे अपने स्कूल का काम करने में व्यस्त थे. गार्गी ने चुप्पी भंग करते हुए कहा, ‘‘निन्नी बेटा, तेरे पापा कह रहे थे कि अब तक तो निन्नी संभल गई होगी. तुम्हें गए भी 4 महीने हो गए हैं. कमल की शादी तय हो गई है. अगले महीने तक आ जाओ.’’
‘‘शादी? चाचाजी की? अभी 2 महीने पहले ही तो चाचीजी की मृत्यु हुई है. उन की तो राख भी ठंडी नहीं हुई. शादी है या मजाक?’’