नवनी और कुंतल ने सैमिनार से एक दिन पहले दिल्ली पहुंचना तय किया ताकि कुछ समय वे एकांत में बिता सकें. तय कार्यक्रम के अनुसार कुंतल दिल्ली पहुंच चुका था जबकि नवनी की ट्रेन 2 घंटे की देरी से चल रही थी. कुंतल से इंतजार का समय काटे नहीं कट रहा था. वह बारबार कभी फोन तो कभी मैसेज करकर के नवनी से ट्रेन की स्थिति की जानकारी ले रहा था. उस की बेचैनी पर नवनी निहाल हुई जा रही थी.
'तुम क्या करने जा रही हो नवनी? क्या यह अनैतिक नहीं?' नवनी के विचारों ने अचानक अपना रुख बदल लिया.
'प्यार नैतिक या अनैतिक नहीं सिर्फ प्यार होता है... हम दोनों एकदूसरे का साथ पसंद करते हैं तो इस में अनैतिक क्या हुआ?' नवनी ने तर्क किया.
'क्या यह दिव्य से बेवफाई नहीं होगी? सौम्या को पता चलेगा तो उस के सामने तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी?' फिर एक प्रश्न उभरा,'नहीं, किसी से कोई बेफवाई नहीं... मेरी निगाहों में यह मेरी अपनेआप से वफा है. वैसे भी दिव्य मेरे शरीर पर अपना हक जता सकता है लेकिन मेरे मन पर नहीं... रही बात सौम्या की... तो वह भी नारी है... देरसवेर मेरी भावनाओं को समझ जाएगी... जिस तरह मैं सब की खुशी का खयाल रखती हूं उसी तरह क्या खुद को खुश रखना मेरी जिम्मेदारी नहीं? और वैसे भी हम सिर्फ अकेले में 2 घड़ी मिल ही तो रहे हैं. इस में इज्जत और बेइज्जती की बात कहां से आ गई?' नवनी ने प्रतिकार किया.
'तुम्हें क्या लगता है? क्या अकेले में कुंतल खुद पर काबू रख पाएगा? कहीं तुम ही फिसल गई तो?' मन था कि लगातार प्रश्नजाल फैला कर उसे उलझाने की कोशिश में जुटा था. किसी को चाहने के बाद उसे पाने की लालसा होती ही है... और किसी को पूरी तरह से पाने की अनुभूति यदि शारीरिक मिलन से होती है तो फिर...' नवनी ने अपने वितर्क को जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया और इस के साथ ही आप से किए जा रहे तर्कवितर्क को जबरदस्ती विराम दे दिया. शायद वह इन जलते हुए प्रश्नों का सामना कर के अपने मिलन के आनंद को कम नहीं करना चाहती थी.