भोजन करने के बाद वह रंजन से मिलने चला गया. 4 माह बीत गए. दोपहर के 12 बज रहे थे. बाबाअम्मां बेहद व्यस्त थे.
तभी बाहर एक रिकशा रुका.
रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू सुमंत और श्लेषा थे. श्लेषा ने अपनी भेदी नजरें चौराहे से ही घर पर गड़ा दी थीं. रिकशा रुकने के साथ ही उस ने घर का जायजा ले लिया. बाहर ढेर सारे स्कूटर मोटरसाइकिलें, अंदर लोगों की चहलपहल. यदि पहले से उसे यह जानकारी नहीं होती कि बाबा ने ‘ढाबा’ खोल लिया है तो घर पर लोगों की ‘भीड़’ देख वह यही समझती कि सासससुर में से कोई एक ‘खिसक’ गया है.
ईर्ष्या से उस ने दांत पीस लिए. पास बैठा सुमंत भी चोर नजरों से सब ताड़ रहा था. पिछले 4 महीनों में उस ने एक बार भी मातापिता की खोजखबर नहीं ली थी. वह आज भी यहां नहीं झांकता, मगर पिछले हफ्ते एक रिश्तेदार के यहां शादी में किसी परिचित ने उसे जानकारी दी कि उस के बाबा रिटायर्ड लाइफ में भी भरपूर कमाई कर रहे हैं, सर्विस लाइफ से भी ज्यादा.
उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ था. श्लेषा की तो छाती पर सांप लोट गया था. ऐसा कौन सा तीर मारा होगा बुढ़ऊ ने? कहीं मकान बेच कर ऐश तो नहीं कर रहे बुड्ढेबुढि़या? हिस्सा हमारा भी है उस में. श्लेषा ने तुरंत मोबाइल पर अपने मायके बात की और सारी जानकारियां जुटाने को कहा.
4-5 दिन में उस के भैया ने हैरतअंगेज जानकारियां दीं, ‘‘बाबा ने ऊपरी मंजिल पर दर्जन भर लड़कों का छात्रावास बना दिया...नीचे मेस चालू कर दी...इन छात्रों के कारण मेस में बीसियों और छात्र आने लगे. रंजन के परिचय की वजह से बिना परिवार के रहने वाले बैंककर्मी व अन्य लोग भी. ढाबा ही खोल लिया बाबा ने. टिफिन सर्विस भी है. 200 से ज्यादा परमानेंट मेंबर बन गए हैं.’’