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लेखिका- डा. पूर्णिमा केडिया ‘अन्नपूर्णा’

नई ओर बहू सुष्मिता मेरी अचरज से देख रही थी कि मैं मां हो कर भी अपनी ही बेटी के विरुद्ध बोल रही थी.

चंद्रा और श्रीकांतजी को 2 दिनों के बाद कोलकाता लौटना था. उन के लौटने से पहले मैं ने समधनजी से कहा, ‘‘चंद्रा में अभी थोड़ा बचपना है. आप उस की बातों पर ध्यान मत दिया कीजिए.’’

वे हंसती हुई बोलीं, ‘‘वह जैसी भी है, अब मेरी बेटी है. आप उस की चिंता मत कीजिए.’’

मुझे लगा, जैसे मुझ पर से कोई बोझ उतर गया. फिर सोचा, चंद्रा तो कोलकाता जा रही है और उस की सास यहां रहेंगी. धीरेधीरे संबंध खुदबखुद सुधर जाएंगे.

दिन बीत रहे थे. बिटिया ने कोलकाता से फोन किया, ‘‘पापा के साथ आओ न मेरा घर देखने.’’

मैं बोली, ‘‘अभी तेरे पापा को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलेगी. हम फिर कभी आएंगे. पहले तुम अपने सासससुर को बुलाओ न अपना घर देखने के लिए? अब तो वहां का घर संभालने तुम्हारी देवरानी भी आ गई है.’’

‘‘नहीं मां, वे आएंगी तो मेरी गृहस्थी में 100 तरह के नुक्स निकालेंगी. मैं नहीं बुलाऊंगी उन्हें.’’

‘‘अरे, बिटिया रानी, कैसी बात कर रही हो? वे आखिर तुम्हारे पति की मां हैं.’’

‘‘हुंह मां. तुम नहीं जानतीं कैसे पाला है उन्होंने इन को. तुम्हें पता है, वे इन्हें बासी रोटियों का नाश्ता करा कर स्कूल भेजती थीं.’’

‘‘अरे पगली, बासी रोटियों का नाश्ता करने में क्या बुराई है? राजस्थानी घरों में बासी रोटियों का नाश्ता ही किया जाता है. बचपन में हम भाईबहन भी बासी रोटियों का नाश्ता कर के ही स्कूल जाते थे. सच कहूं, तो मुझे तो अभी भी बासी रोटियां खूब अच्छी लगती हैं पर तुम्हारे पापा बासी रोटियां नहीं खाना चाहते, इसीलिए यहां नाश्ते में ताजा रोटियां बनाती हैं.’’

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