‘‘चल उठ... बहुत सोचने लगी है... ऐसे ही सोचती रही तो प्रियांश की परवरिश कैसे करेगी? यह देख (दीदी ने बेल को फिर से कपड़े सुखाने वाले तार पर लपेटते हुए कहा). ले मिल गया सहारा. अब फिर से हरी हो जाएगी यह बेल.’’
‘‘दीदी, काश जिंदगी भी इतनी ही आसान हो सकती...’’
‘‘यदि कोशिश की जाए तो कुछ मुश्किलें तो अब भी कम हो सकती हैं वृंदा...’’ दीदी की आवाज अचानक गंभीर हो गई.
‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी दीदी?’’
‘‘वृंदा, अमृत भैया की बेरुखी किसी से छिपी नहीं... आज संकट की इस घड़ी में उन्हें जहां सब से आगे होना चाहिए था, वहीं वे मुंह चुराते घूम रहे हैं. हैरत की बात तो यह है कि
मां भी खामोश हैं... क्या मजबूरी है उन की, मैं नहीं जानती?’’
‘‘दीदी, एक तो बुढ़ापा ऊपर से बिना पति के भला इस से बढ़ कर मजबूरी और क्या हो सकती है. आखिर उन का बुढ़ापा तो भैया की पनाह में ही कटना है न?’’
‘‘इस का मतलब बेटी के एहसासों की कोई कीमत नहीं... आखिर उस के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी बनती है उन की. घर उन का है...
पापा की पैंशन है... कौन सा वे भैया के सहारे जी रही हैं?’’
‘‘दीदी, मां समाज को तो नहीं बदल सकतीं न... जहां आज भी बेटियों की अपेक्षा बेटों के साथ रहने में ही मातापिता का सम्मान कायम माना जाता है.’’
‘‘मेरी छोटी बहन कितनी समझदार हो गई है. चल छोड़ ये सब वृंदा... मैं ने, मृदुला ने और तुम्हारे दोनों जीजाजी ने यह तय किया है कि वे भैया से बात करेंगे. आज समय बदल चुका है. कानून ने भी बेटियों को पिता की पूंजी में बराबर का हक देने की बात को स्वीकार किया है.’’