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पिछला भाग- 3 सखियां: भाग-1

‘‘अरे रितिका तू?’’ आभा चीखी, ‘‘कहां से बोल रही है?’’

‘‘न्यूयार्क से.’’

‘‘इधर अमेरिका कब आई, कैसे आई?’’

‘‘बस जहां चाह वहां राह. एक मालदार आंख का अंधा गांठ का पूरा मिल गया. मैं ने उस पर धावा बोल दिया और 3 ही महीने में वह चित्त हो गया. हम ने फौरन शादी की और चूंकि वह न्यूयार्क में काम करता है, हम यहां आ गए.’’

‘‘अरे वाह, यह तो कमाल हो गया. लेकिन शादी में बुलाना तो था न यार.’’

‘‘यह सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ न पूछो. मुझे खुद नहीं विश्वास होता कि मेरी शादी हो गई है.’’

‘‘चल ये तो बड़ा अच्छा हुआ. देख हम तीनों सखियां बचपन से साथ हैं और अब भी साथ रहने का मौका मिल गया. रितिका, तू मुझ से वादा कर कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए हम तीनों हमेशा मिलती रहेंगी. ज्यादा नहीं तो कम से कम साल में 1-2 बार, बारीबारी से एकदूसरे के घर में.’’

‘‘जरूर. लेकिन तू पहले यह बता कि अपनी सखी शालिनी के क्या हाल हैं?’’

‘‘वह भी मजे में है. पर उस से ज्यादा बात नहीं हो पाती. तू यहां आएगी तो उसे भी बुला लेंगे.’’

‘‘जरूर. तू कुछ खानावाना बना लेती है या नहीं?’’

‘‘क्यों नहीं. शादी तय होते ही मेरी मां ने मुझे एक कुकरी क्लास जौइन करवा दी. वही पाक कला आज काम आ रही है. थोड़ाबहुत तो बना ही लेती हूं.’’

‘‘अरे वाह, मैं तो अपने घर का खाना खाने के लिए तरस जाती हूं. जब से शादी हुई रोज डिनर पार्टी होती रहती है. कभी चाइनीज, कभी जापानी, कभी थाई तो कभी वियतनामीज. मैं तो खाखा कर बोर हो गई.’’

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