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निकिता की बात को राज ने आगे बढ़ाया, ‘‘भोपाल में हमारी बैंक की शाखा में महीने में एक बार काम के बाद सब का एकसाथ डिनर पर जाने का अच्छा चलन था. ऐसे ही एक डिनर के बाद मैं ने निकिता से कहा था, ‘निकिता तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? ऐसे अकेले कहां तक जिंदगी ढोओगी? शादी कर लोगी तो तुम्हारे बेटे को अगर पिता का नहीं, तो किसी पिता जैसे का प्यार तो मिलेगा.’

‘‘इस पर निकिता ने अपनी शून्य में ताकती निगाहों के साथ मुझ से पूछा था, ‘ये सब कहने में जितना आसान होता है, करने में उतना ही मुश्किल. कौन बिताना चाहेगा मुझ विधवा के साथ जिंदगी? कौन अपनाएगा मुझे मेरे बेटे के साथ? क्या तुम ऐसा करोगे राज, अपनाओगे किसी विधवा को एक बच्चे के साथ?’

‘‘निकिता के शब्दों ने मेरे होश उड़ा दिए थे और उस वक्त मैं सिर्फ ‘सोचूंगा, और तुम्हारे सवाल का जवाब ले कर ही तुम्हारे पास आऊंगा,’ कह कर वहां से चला आया था.

‘‘मैं चला तो आया था मगर निकिता के शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे. मेरे मन में एक अजब सी उथलपुथल मची हुई थी. मेरे मन की उलझन मां से छिपी न रह सकी. उन के पूछने पर मैं ने निकिता के साथ डिनर के दौरान हुए वार्त्तालाप का पूरा ब्योरा उन्हें दे दिया.

‘‘सब सुनने के बाद मां ने कहा, ‘सीधे रास्तों पर तो बहुत लोग हमराही बन जाते है मगर सच्चा पुरुष वह है जो दुर्गम सफर में हमसफर बन कर निभाए. बेटा, एक विधवा हो कर अगर मैं ने दूसरी विधवा स्त्री के दर्द को न समझा तो धिक्कार है मुझ पर. यह मैं ही जानती हूं कि तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद तुम्हें कैसेकैसे कष्ट उठा कर पाला था. कहने को तो मैं संयुक्त परिवार में रहती थी पर तुम्हारे पिता के दुनिया से जाते ही मुझे जीवन की हर खुशी से बेदखल कर दिया गया था.

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