‘मेरी बेटी को क्यों कोस रही हो, मांजी. सही समय पर सभी कार्य स्वयं ही संपन्न हो जाते हैं,’ मां ने मिट्ठी का पक्ष लेते हुए कहा था.
‘4 वर्ष बीत गए. हजारों रुपए तो देखनेदिखाने पर खर्च किए जा चुके हैं. मुझे नहीं लगता, इस के भाग्य में गृहस्थी का सुख है. मेरी मानो तो इस के छोटे भाईबहनों का विवाह कर दो,’ दादीमां ने अपने बेटे को सुझाव दिया था.
‘क्या कह रही हो, मां? क्या ऐसा भी कहीं होता है कि बड़ी बेटी बैठी रहे और छोटों का विवाह हो जाए? फिर, मिट्ठी से कौन विवाह करेगा?’ सर्वेश्वर बाबू के विरोध का स्वर कुछ इस तरह गूंजा था कि दादीमां आगे कुछ नहीं बोली थीं.
उस की मां अचानक ही बहुत चिंतित हो उठी थीं. जिस ने जो उपाय बताए, मां ने वही किए. कितने दिन भूखी रहीं. कितना पैसा मजारों पर जाने व चादर चढ़ाने पर खर्च किया, पर सब बेकार रहा और इसी चक्कर में मां अस्पताल पहुंच गईं.
अंत में एक दिन मिट्ठी ने घोषणा कर दी थी कि अब विवाह नाम की संस्था से उस का विश्वास उठ गया है और वह न तो भविष्य में लोगों के सामने अपनी नुमाइश लगा कर अपना उपहास करवाएगी न कभी विवाह करेगी.
सर्वेश्वर बाबू को जैसे इस उद्घोषणा की ही प्रतीक्षा थी. उन्होंने तुरंत ही दूसरी बेटी पुष्पी के विवाह के लिए प्रयत्न प्रारंभ किए. उन का कार्य और भी सरल हो गया जब पुष्पी ने अपने लिए वर का चुनाव स्वयं ही कर लिया और मंदिर में विवाह कर मातापिता का आशीर्वाद पाने घर की चौखट पर आ खड़ी हुई थी.