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लेखिका- रीता श्रीवास्तव

ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन...और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी...वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी.

‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’

‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो...’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’

‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’

‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’

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