लेखक- अरुण गौड़
नैना बातें तो सामने बैठी अपनी दोस्त संध्या से कर रही थी लेकिन उस का ध्यान कहीं और था. वह जानती थी कि किसी की आंखें लगातार उसे देख रही हैं, उस के बदन पर घूम रही हैं. वह यह जान कर भी अंजान बन रही थी क्योंकि वे आंखें रोहन की थीं. रोहन उस की फ्रैंड संध्या का बेटा था.
उम्र और रिश्तों की बात की जाए और अगर नैना की भी फैमिली होती तो उस का बेटा भी आज लगभग रोहन का हमउम्र ही होता. लेकिन यहां बात उम्र और रिश्तों की नहीं थी. यहां बात थी चाहत की. रोहन अपनी मम्मी की सहेली नैना को बहुत पंसद करता था. जवानी में प्रवेश करने की उम्र में मैच्योर लेडी की तरफ झुकाव आज की पीढ़ी में आम है. रोहन इसी पीढ़ी का लडका था. सो, वह अपने नएनए आवारा हुए मन को काबू में न रख सका. अब इसे चाहत समझें या जवानी का भटकाव. जो भी था, बहरहाल, रोहन नैना की तरफ झुक रहा था. जबकि, नैना के मन में ऐसा कुछ था या नहीं, यह वह खुद भी नहीं जानती थी.
नैना, लगभग 40 साल की एक सफल लेकिन सिंगल महिला, की जिंदगी में सफलता तो थी लेकिन प्यार नहीं. उस की जिंदगी में प्यार की उम्मीदों के साथ परिवार वालों ने सात फेरों के बंधन में उसे जिस से बांधा था, उस ने उस की जिंदगी को खुशियों से भरने की जगह, बस, बंधनों से बांध दिया था.
नैना आजादखयाल की पढ़ीलिखी लड़की थी. कुछ समय तक तो सामाज, इज्जत, रिश्तों के दबाव में उस ने अपने आजादखयालों को दबाए रखा लेकिन वक्त के साथसाथ बंधन और बढ़ते गए.