रुखसार रात को वहीं रुक गई और हाटबाजार के अगले पड़ाव तक वहीं रही. 4 दिन बाद जब बाजार में गई तो जमाल गुस्से से लालपीला हो रहा था, ‘‘तुम आखिर चाहती क्या हो? क्यों अपने साथ मेरी जिंदगी भी खतरे में डाल रही हो. अगर इश्क किया है तो या तुम भारत जाओ या उसे बंगलादेश ले जाओ. यों चूहेबिल्ली का खेल बंद करो.’’
‘‘जमाल तुम जानते हो कि यह मुमकिन नहीं है. शाहिद कोशिश कर रहा है, लेकिन इस में समय कितना लगेगा यह हमें भी नहीं पता. पता नहीं ऐसा हो भी पाएगा या नहीं.’’
‘‘तो तब तक तुम...’’ जमाल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘मेरी राय है कि यहीं रहो. जब तक तुम्हें भारत की नागरिकता नहीं मिल जाती यहां तुम पूरी तरह से महफूज हो. बस तुम्हें इन चारदीवारी में रहना होगा. मैं सब से कह दूंगा कि तुम चटगांव में किसी कारखाने में काम कर रही हो.’’
‘‘लेकिन...’’ रुखसार कुछ कहना चाह रही थी मगर जमाल ने उसे इशारे से रोक दिया और कहा, ‘‘देखो रुखसार, यह थोड़े दिनों की ही परेशानी है. कप्तान साहब और अन्य गांव वालों की मदद से तुम्हें जल्दी ही भारत की नागरिकता मिल जाएगी. फिर सब ठीक हो जाएगा.’’ समय अपनी गति से बढ़ता गया और हाटबाजार का काम भी अपनी गति से बढ़ता गया. सरकार काम में हो रही प्रगति से संतुष्ट थी और इंसपैक्शन के दौरान सरकार ने काम में आ रही बाधाओं के मद्देनजर 6 महीने की अवधि और बढ़ा दी. उधर रुखसार को मानो एकाकी जीवन जीने की आदत सी पड़ गई थी. कभीकभी जमाल स्टोर में सामान लेने व रखने आता, तो वह उत्कंठा से गांव का हालचाल पूछती. इस के अलावा तो वह बिलकुल तनहा थी. शाहिद के आने से उस के होंठों पर मुसकान फैल जाती. शाहिद रुखसार को देखता तो उसे बहुत दुख होता. कई बार उसे आत्मग्लानि भी होती. उसे लगता कि जो कुछ भी हुआ सब का कुसूरवार वही है. एक दिन उस के चेहरे के भाव देख कर रुखसार ने उस से कहा, ‘‘तुम खुद को दोषी क्यों मानते हो? यही हमारा जीवन है, यही हमारी नियति है.’’