कौलबैल की आवाज सुनते ही रश्मि के दिल पर एक घूंसा सा लगा. उसे लगा, आग का कोई बड़ा सा गोला उस के ऊपर आ गया है और वह उस में झुलसती जा रही है.
पति की बांहों में सिमटी वह छुईमुई सी हुई पागल होना चाहती थी कि सहसा कौलबैल ने उसे झकझोर कर रख दिया. कौलबैल के बीच की दूरी ऐसी थी, जिस ने कर्तव्य में डूबे पति को एकदम बिस्तर से उठा दिया. रश्मि मन ही मन झुंझला उठी.
‘‘डाक्टर, डाक्टर, हमारे यहां मरीज की हालत बहुत खराब है,’’ बाहर से आवाज आई.
रश्मि बुदबुदाई, ‘ये मरीज भी एकदम दुष्ट हैं. न समय देखते हैं, न कुछ... अपनी ही परवा होती है सब को. दूसरों को देखते तक नहीं, मरमरा जाएं तो...’
‘‘शी...’’ उस के पति डाक्टर सुंदरम ने उस को झकझोरा, ‘‘धीरे बोलो. ऐसा बोलना क्या तुम्हें शोभा देता है?’’
रश्मि खामोश सी, पलभर पति को घूरती रही, ‘‘मत जाइए, हमारी खुशियों के वास्ते आज तो रहम कीजिए. मना कर दीजिए.’’
‘‘पागल तो नहीं हो गई हो, रश्मि? मरीज न जाने किस अवस्था में है. उसे मेरी जरूरत है. विलंब न जाने क्या गुल खिलाए? मुझे जाने दो.’’
‘‘नहीं, आज नहीं जाने दूंगी. रोजरोज ऐसे ही करते हो. कभी तो मेरी भी सुना करो.’’
‘‘कर्तव्य की पुकार के आगे हर आवाज धीमी पड़ जाती है, रश्मि. यह नश्वर शरीर दूसरों की सेवा के लिए ही तो बना है. जीवन में क्या धरा है, केवल आत्मसंतोष ही तो, जो मुझे मरीजों को देख, उन्हें संतुष्ट कर के मिल जाता है.’’
‘‘कर्तव्य, कर्तव्य, कर्तव्य,’’ रश्मि खीझी, ‘‘क्या तुम्हीं रह गए हो कर्तव्य पूरा करने वाले? मरीज दूसरे डाक्टर को भी तो बुला सकता है. तुम मना कर सकते हो.’’