लेखिका- रमा प्रभाकर
‘‘यह किस का प्रेमपत्र है?’’ सुधा ने धीरेंद्र के सामने गुलाबी रंग का लिफाफा रखते हुए कहा.
‘‘यह प्रेमपत्र है, तो जाहिर है कि किसी प्रेमिका का ही होगा,’’ सुधा ने जितना चिढ़ कर प्रश्न किया था धीरेंद्र ने उतनी ही लापरवाही से उत्तर दिया तो वह बुरी तरह बिफर गई.
‘‘कितने बेशर्म इनसान हो तुम. तुम ने अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाए हुए हैं कि मैं आज तक तुम्हारे असली रूप को समझ नहीं सकी हूं. क्या मैं जान सकती हूं कि तुम्हारे जीवन में आने वाली प्रेमिकाओं में इस का क्रमांक क्या है?’’
सुधा ने आज जैसे लड़ने के लिए कमर कस ली थी, लेकिन धीरेंद्र ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. दफ्तर से लौट कर वह फिर से बाहर निकल जाने को तैयार हो रहा था.
कमीज पहनता हुआ बोला, ‘‘सुधा, तुम्हें मेरी ओर देखने की फुरसत ही कहां रहती है? तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी सहेलियां, रिश्तेदार इन सब की देखभाल और आवभगत के बाद अपने इस पति नाम के प्राणी के लिए तुम्हारे पास न तो समय बचता है और न ही शक्ति.
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‘‘आखिर मैं भी इनसान हूं्. मेरी भी इच्छाएं हैं. मुझे भी लगता है कि कोई ऐसा हो जो मेरी, केवल मेरी बात सुने और माने, मेरी आवश्यकताएं समझे. अगर मुझे यह सब करने वाली कोई मिल गई है तो तुम्हें चिढ़ क्यों हो रही है? बल्कि तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए कि अब तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’
धीरेंद्र की बात पर सुधा का खून खौलने लगा, ‘‘क्या कहने आप के, अच्छा, यह बताओ जब बच्चे नहीं थे, मेरी पढ़ाई नहीं चल रही थी, सहेलियां, रिश्तेदार कोई भी नहीं था, मेरा सारा समय जब केवल तुम्हारे लिए ही था, तब इन देखभाल करने वालियों की तुम्हें क्यों जरूरत पड़ गई थी?’’ सुधा का इशारा ललिता वाली घटना की ओर था.