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लेखिका- अर्चना भारद्वाज

‘‘ओह, इट्स टू टायरिंग, सो लौंग ट्रिप,’’ पसीना पोंछते हुए पुनीत ने अपना सूटकेस दरवाजे के सामने रख दिया. घंटी का बटन दबाया और इंतजार करने लगा. मकान में खामोशी थी. कहां गए सब? पुनीत ने प्रश्नवाचक दृष्टि से दरवाजे पर लटके ताले को देखा. फिर जेब से रूमाल निकाल कर पसीना पोंछ अपना एअर बैग सूटकेस पर रख दिया. दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा. बरामदे के पीछे कोई खिड़की हवा में हिचकोले खा रही थी.

पुनीत थोड़ा पीछे हट कर ऊपर देखने लगा. वह दोमंजिला मकान था. लेन के अन्य मकानों की तरह काली छत, अंगरेजी के वी की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआं और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिस के माथे पर मकान का नंबर काली बिंदी सा दिख रहा था. ऊपर की खिड़कियां बंद थीं और परदे गिरे थे. ‘कहां जा सकते हैं इस वक्त?’ सोच वह मकान के पिछवाड़े गया. वही लौन, फेंस और झाडि़यां थीं, जो उस ने 3 साल पहले देखी थीं. गैराज खुला था और खाली पड़ा था. वे कहीं गाड़ी ले कर गए थे. संभव है उन्होंने सुबह देर तक प्रतीक्षा की हो और अब वे किसी काम से बाहर चले गए हों. लेकिन कम से कम दरवाजे पर एक चिट तो छोड़ ही सकते थे, जिस से पता चल जाता कि वे कब लौटने वाले हैं.

पुनीत मकान की सीढि़यों पर बैठ गया. शाम के 7 बजने वाले थे. धुंधलका बढ़ने लगा था. उसे चिंता हुई कि इस वक्त वे कहां गए होंगे? पापा को रात में कम दिखाई देता है और मां तो गाड़ी चला ही नहीं सकतीं. भूख भी लगनी शुरू हो गई थी. उस ने बैग से पानी की बोतल निकाल 2-4 घूंट पानी पी भूख को शांत करने की कोशिश की. वह सोचने लगा कि आसपास भी ज्यादा किसी को जानता नहीं है, किस से बात करे. लेदे कर एक शिखा को ही जानता था पर उस के साथ पुनीत ने जो किया था, उस से बात करने की तो गुंजाइश ही नहीं बचती थी.

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