‘‘हद हो चुकी है इंसानियत की. ऐसा लगता है जैसे हम आदिम युग में जी रहे हैं. महिलाओं को अपने तरीके से जीने का अधिकार ही नहीं है. बेचारियों को सांस लेने के लिए भी अपने घर के मर्दों की इजाजत लेनी पड़ती होगी,’’ विनय रिमोट के बटन दबाते हुए बारबार न्यूज चैनल बदल रहा थे और साथ ही साथ अपना गुस्सा जाहिर करते हुए बड़बड़ा भी रहे थे. उन्हें भी टीवी पर दिखाए जाने वाले समाचार विचलित किए हुए हैं. वे अफगानी महिलाओं की जगह अपने घर की बहूबेटी की कल्पनामात्र से ही सिहर उठे.
‘‘अफगानी महिलाओं को इस का विरोध करना चाहिए. अपने हक में आवाज उठानी चाहिए,’’ पत्नी रीमा ने उन्हें चाय का कप थमाते हुए अपना मत रखा. उन्हें भी उन अपरिचित औरतों के लिए बहुत बुरा लग रहा था.
‘‘अरे, वैश्विक समाज भी तो मुंह में दही जमाए बैठा है. मानवाधिकार आयोग कहां गया? क्यों सब के मुंह सिल गए?’’ विनय थोड़ा और जोश में आए.
तभी उन की बहू शैफाली औफिस से घर लौटी. कार की चाबी डाइनिंगटेबल पर रखती हुई वह अपने कमरे की तरफ चल दी.
विनय और रीमा का ध्यान उधर ही चला गया. लंबी कुरती के साथ खुलीखुली पैंट और गले में झलता स्कार्फ... विनय को बहू का यह अंदाज जरा भी नहीं सुहाता.
‘‘कम से कम ससुर के सामने सिर पर पल्ला ही डाल ले, इतना लिहाज तो घर की बहू को करना ही चाहिए,’’ विनय ने रीमा की तरफ देखते हुए नाखुशी जाहिर की.
रीमा मौन रही. उस की चुप्पी विनय
की नाराजगी पर अपनी सहमति की मुहर लगा रही थी.