हम क्या पहनें और क्या खाएं, क्या यह तय करने वाला कोई और होना चाहिए. आमतौर पर एक समाज में सब एक से कपड़े पहनते हैं. आदमियों के कपड़े एक से तय हैं, खास दिनों के लिए एक से. जब से संचार क्रांति हुई है और न केवल फोटो और विडियों इधर से उधर घूम रहे हैं. पहनावे में फर्क आने लगा है पर हर बार पायनियरों को, शुरुआत करने वालों को विद्रोही माना जाता रहा है.
उस का कारण यह है कि तय परंपरा लागू करने में धर्म की भूमिका बड़ी रहती है. हर धर्म ने दूरदूर तक अपनी पहचान बनाई तो पहनावे से. अगर ईसाई हो तो इस तरह का पहने. मुसलिम हो तो इस तरह का और हिंदू हो तो इस तरह का. क्षेत्रीय प्रभाव रहा है पर उस में धर्म का रौव फिर रहा है. इस से धर्म को लाभ यह रहता है कि जैसे ही कोई बिचकने लगे, वे उसे घेर सकते हैं. लोगों को इकट्ठा कर के उसे धर्म के हिसाब से पहनने को तो मजबूर करते ही हैं. उस की सोच में तर्क का कोई कीड़ा घुसने लगे तो उस पर तुरंत वार करो और उसे मार डालो. धर्म जानता है कि कपड़ों से शुरू हो कर बात धाॢमक रीतिरिवाजों तक जाएगी और फिर सवालजवाब शुरू हो जाएंगे.
विधवा सफेद पहने यह हिंदू धर्म आज भी अपनाया जा रहा है. अच्छी भली पढ़ीलिखी औरतें भी पति को खोने के बाद जो पहनती हैं उस में सफेद कुछ ज्यादा होता है. अगर वे न पहनें तो तुरंत पंडे टोकने लगते हैं. माहौल की भारी बेचारी विधवा अब विद्रोह करे तो कैसे करे. उसे अपने तन और धन को बचाना हो मुश्किल होता है, मन की कैसे चलाए.