बाजार में जमे रहने के लिए छोटीबड़ी कंपनियों को यह जरूरी हो चला है कि वे अपने उत्पाद की खूबियों का प्रचारप्रसार कुछ इस तरह करती रहें कि उपभोक्ता के दिमाग में उस की मौजूदगी बनी रहे. इस गुर को धर्मगुरु और पंडेपुजारी सदियों से व्यापक पैमाने पर अपनाते रहे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि उन के पास बेचने को कोई उपयुक्त चीज है नहीं, सिवा पुण्य और मोक्ष आदि जैसे काल्पनिक शब्दों के.
धर्म की दुकान की तुलना एक बहुत बड़े शौपिंग माल से की जा सकती है जिस में वाकई सबकुछ मिलता है. बस, आप की जेब में खरीदने के लिए रुपए होने चाहिए. पहले धर्म की जरूरत को इन दुकानदारों ने स्थापित किया फिर तरहतरह से दान की महिमा गाई जिस का सार यह निकलता है कि दरिद्र वह नहीं जिस के पास पैसा नहीं, बल्कि वह है जो दान नहीं करता.
दान की महिमा वाकई अपार है जो देने और लेने वाले दोनों की पात्रता तय करती है. वक्त के मुताबिक ये पैमाने बदलते रहते हैं. पहले छोटी जाति वालों को दान देने लायक भी नहीं माना जाता था मगर बढ़ते मांगने वालों और घटते देने वालों की संख्या के चलते यह बंदिश हट गई है. अब छोटी जाति वाला भी दान कर सकता है मगर लेने वाला आज भी ज्यादातर ब्राह्मण है या किसी जगह का पुजारी.
प्रवचनों का चमकता बाजार किसी सुबूत का मोहताज नहीं है. कुकुरमुत्ते की तरह उग आए धर्मगुरु, संत, बाबा महानगरों से ले कर देहातों तक में पंडाल लगाए बैठे हैं. कोई भागवत सुना रहा है, कोई रामायण तो किसी की रोजीरोटी का जरिया कृष्ण लीला है. हिंदू धर्म में दान झटकने के लिए देवीदेवताओं की कमी नहीं. खूबी की बात इस में गाय जैसे दुधारू जानवर के नाम पर भी पैसा कमाना है. धार्मिक षड्यंत्र या चालाकियां कैसे फलतीफूलती हैं, इस की एक बेहतर मिसाल भोपाल में संपन्न हुआ सातदिवसीय श्रीमद्भागवत गो कथा समारोह था.