क्याआप कभी सोच सकते हैं कि सड़क किनारे तंबू गाड़ कर रहने वाले का बच्चा अंगरेजी में बात कर सकता है? असंभव, यही जवाब होगा आप का. लेकिन इस असंभव काम को संभव कर दिखाया है ‘मेक ए डिफरैंस’ नाम की संस्था चलाने वाली ग्लोरिया बेनी ने. वे कहती हैं, ‘‘हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कोई कार्य कर नहीं सकते, बल्कि यही सोचना चाहिए कि ऐसा कोई कार्य ही नहीं जिसे हम न कर सकें.’’
कैसे हुई शुरुआत
अपने बीते दिनों की बातों में खो कर ग्लोरिया बताती हैं, ‘‘कालेज लाइफ सभी के लिए स्पैशल होती है. मेरे लिए भी थी. हमारा 6 दोस्तों का ग्रुप था. एक बार हमारे गु्रप में किसी का बर्थडे आया तो हम सभी ने निर्णय लिया कि हम बर्थडे सैलिब्रेशन कुछ अलग अंदाज में करेंगे और फिर हम ने शहर के एक अनाथालय में बच्चों के साथ बर्थडे मनाने का फैसला किया.’’ वे बताती हैं, ‘‘जब हम उस अनाथालय में गए तो हम ने वहां देखा कि बच्चे बहुत टैलेंटेड हैं. लेकिन सुविधाओं की कमी में उन के टैलेंट की बेकदरी की जा रही है. हमें अंगरेजी में एकदूसरे से बात करता देख उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था, लेकिन उन के लिए इस तरह बात करना मुश्किल था, क्योंकि वे सिर्फ उतनी ही अंगरेजी जानते थे जितनी उन्हें सरकारी स्कूल में सिखा दी जाती थी.
ग्लोरिया बताती हैं, ‘‘हम ने अनाथालय के बच्चों की पढ़ाई में मदद करने के लिए एक ग्रुप बनाया और ग्रुप का नाम ‘मेक ए डिफरैंस’ रखा. हम ने बच्चों को अंगरेजी पढ़ाने से शुरुआत की. हम सप्ताह में 1 बार अंगरेजी की क्लास लगाया करते थे.’’ ग्लोरिया लगातार प्रयास कर रही थीं, लेकिन सफलता का स्वाद इतनी जल्दी चख पाना आसान तो नहीं था. वक्त बीतता गया और कालेज कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला. ग्लोरिया को गूगल हैदराबाद औफिस में जौब भी मिल गई. लेकिन गूगल जैसी संस्था में 5 वर्ष काम करने के बाद भी ग्लोरिया को आत्मसंतुष्टि नहीं मिल पा रही थी. ग्लोरिया अपने ग्रुप और काम को याद करती रहती थीं.