लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

मानस डाइनिंग टेबल पर बैठा हुआ नाश्ते का इंतजार कर रहा था, पर विद्या की पूजा थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर के मंदिर से घंटी की आवाजें लगातार मानस के कानों से टकरा रही थीं, पर इन सब से मानस को कोफ्त हो रही थी.

‘‘लगता है, आज भी औफिस की कैंटीन में ही नाश्ता करने पड़ेगा... और फिर मेरे लिए तो यह रोज का ही किस्सा है,’’ बुदबुदाते हुए उठा था मानस.

रोज बाहर नाश्ता करना मानस के रूटीन में आ गया था. इस सब की वजह उस की पत्नी विद्या ही थी. वह पूजापाठ में इतनी तल्लीन रहती कि सवेरे जल्दी उठने के बाद भी वह अपने पति को नाश्ता नहीं दे पाती थी.

विद्या का मानना था कि पूजापाठ इनसान को जीवन में जरूर करना चाहिए, क्योंकि इस से उस की अगली जिंदगी तय होती है और अगले जन्म में इनसान को पैसा, गाड़ी, मकान वगैरह का भरपूर सुख मिलता है.

ऐसा नहीं था कि विद्या कोई अनपढ़गंवार थी, बाकायदा उस ने यूनिवर्सिटी से बीए तक की पढ़ाई की थी, पर अपने घर के माहौल का उस पर ऐसा गहरा असर पड़ा था, जिस ने उसे धर्मभीरु बना दिया था.

अपने और मानस के कपड़ों के रंग के चुनाव विद्या दिन के मुताबिक करती थी, मसलन सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल से ले कर शनिवार को काले कपड़े पहनने तक के टाइम टेबल के मुताबिक ही चलती थी.

इतने तक तो कोई बात नहीं थी, मानस सहन कर लेता था, पर असली समस्या जब आती, जब मानस औफिस के काम से थका हुआ घर आता और रात को अपनी पत्नी से उस की देह की डिमांड कर के अपनी थकान मिटाना चाहता था, पर अकसर विद्या का कोई न कोई व्रत होता, कहीं एकादशी या कहीं किसी मन्नत पूरी करने के लिए व्रत या कहीं कोई साप्ताहिक व्रत.

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