‘ओह मां, जब भी घर आती हूं आप यह शादीशादी की रट लगानी शुरू कर देती हो. आगे से मैं आना बंद कर दूंगी. मु झे नहीं करनी शादी. शादी, बच्चे, ससुराल, मायका, मैं ये सब मैनेज नहीं कर सकती. मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी. मैं बस कमाओ, खाओ, पिओ और मौज करो में यकीन करती हूं और शायद मैं इसी के लिए बनी भी हूं.’
‘पर बेटा, ऐसा नहीं है, शादीब्याह कोई झं झट नहीं है. शादी तो प्यार का दूसरा नाम है. एकदूसरे के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत होती है. विवाह समाज द्वारा मान्यताप्राप्त है जो आप को एक पार्टनर देता है जिस से एक ओर जहां आप अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करते हो वहीं दुखसुख को बांटते हो और जहां आप अपना सुरक्षित भविष्य प्राप्त करते हो. विवाह करने में ही जीवन का असली सुख है, बेटा,’ मां ने अपना अनुभवयुक्त ज्ञान उसे देने की कोशिश की थी.
‘इन सब दकियानूसी बातों में मु झे यकीन नहीं. यह कहां की तुक है कि एक आदमी को ही पूरी जिंदगी हवाले कर दो.’
मां आगे और भी कुछ बोलना चाहती थीं पर वह उन की बातों को अनसुना कर के कमरे से बाहर चली गई. पहली बार उसे लगा कि वह मां की नजरों का सामना नहीं कर पाई.
सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. दरवाजे की घंटी की आवाज से उस की नींद खुली. दरवाजा खोला तो सामने रोनित खड़ा था. कनिका 2 कप कौफी ले आई. और बोली, ‘‘रोनित, अब हम क्या करेंगे?’’