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रेवती जैसी बहू पा कर मनोरमाजी निहाल हो गई थीं. रूप, गुण, व्यवहार में अव्वल रेवती ने सहर्ष घर की बागडोर थाम ली थी. लेकिन उसे अपनी अलमारी की चाबी का गुच्छा देते हुए आखिर क्यों मनोरमाजी का दिल दहल उठता और दिल में तरहतरह के विचार उठने लगते थे?

मनोरमाजी अलसाई सी उठीं. एक जोरदार अंगड़ाई ली, हालांकि उठने में काफी देर हो गई थी जबकि वे भरपूर नींद सोई थीं. बेटे की शादी हुए 2 ही दिन हुए थे. महीनों से वे तैयारी में लगी थीं और अभी भी घर अस्तव्यस्त सा ही था. सोचा, उठ कर चाय बना लें. बहू को अपने हाथों से चाय पिलाने की इच्छा से जैसे उन के अंदर चुस्ती आ गई. वे किचन की ओर बढ़ी ही थीं कि ट्रे में चाय के कप को सजाए बहू आती दिखी. साथ में प्लेट में बिस्कुट भी रखे थे.

‘‘चलिए मम्मी, साथ बैठ कर चाय पीते हैं. कितनी थकीथकी सी लग रही हैं.’’

पलभर को तो मनोरमाजी अवाक् रह गईं. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि शादी के

2 दिन बाद बहू स्वयं रसोई में जा कर चाय बना लेगी और उन्हें साधिकार पीने को भी कहेगी. चाय पीतेपीते उन्हें याद आया कि आज तो बहू पगफेरे के लिए मायके जाएगी.

‘‘बेटा, कितने बजे आएंगे तुम्हारे भाई तुम्हें लेने?’’

‘‘मम्मी, शाम तक ही आएंगे. आप बता दीजिए कि क्या बनाना है? और मम्मी, मायके भी तो कुछ ले कर जाना होगा.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं. तुम चिंता मत करो. मैं सब तैयारी कर दूंगी. तुम जा कर तैयार हो जाओ. अभी 2 दिन हुए हैं तुम्हारी शादी को, अभी से काम की टैंशन मत लो. आसपड़ोस की औरतें और रिश्तेदार भी आएंगे तुम्हारी मुंह दिखाई करने. कम से कम हफ्तेभर तो यह सिलसिला चलेगा,’’ मनोरमाजी ने अपनी बहू रेवती से कहा.

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