वे भी ऐसे ही तड़पें जैसे मैं तड़पता रहा हूं. तभी उन्हें कुछ अक्ल आएगी. मेरे मरने पर कुछ लंबाचौड़ा करने की आवश्यकता नहीं है. उसी मंदिर में मेरे सभी क्रियाक्रम किए जाएं,
जहां मैं हर मंगल और इतवार को जाता था.
आशा है लोकेश, तुम सब जानते हुए मेरी इच्छा पूरी करोगे और हां नूरां और राजपाल को उन
के अधिकार अवश्य दिलाना नहीं तो मुझे शांति नहीं मिलेगी.
रमन ने प्रश्नभरी निगाह से बख्शी की ओर देखा तो बख्शी ने कहा, ‘‘हाथ से लिखी हुई वसीयत को कोई कोर्ट भी नहीं नकार सकता, पर हैरानी की बात तो यह है कि दीनानाथ ने अपनी औलाद के लिए कुछ नहीं छोड़ा.’’
इंस्पैक्टर रमन ने कहा, ‘‘बच्चे इसे चैलेंज भी तो कर सकते हैं.’’
‘‘यह बड़ा लंबा प्रोसैस है. सालों लग सकते हैं और खर्चा अलग से,’’ बख्शी ने कहा.
‘‘आप तो दीवानजी के बड़े घनिष्ठ मित्र
थे, आप को तो सब पता होगा?’’
रमन ने पूछा.
‘‘हां, पता तो सब है. हम रोज शाम को मिलते थे. मंदिर में भी हर इतवार को इकट्ठे होते थे, पर 2 साल से दीनानाथ बहुत बीमार था और चुप लगा गया था. दिल की बात तो वह मेरे से भी कभीकभार ही करता था,’’ बख्शी ने कहा.
‘‘आप नूरां के बारे में क्या जानते हैं?’’ रमन ने पूछा.
दोनों टहलतेटहलते कमरे से बाहर निकल कर बरामदे में आ पहुंचे थे. लोगों का आनाजाना शुरू हो चुका था. दाहसंस्कार शाम तक हो जाना था, क्योंकि बच्चे बहुत दूर थे और यहां पर कोई सगासंबंधी भी न था. ‘‘नूरां करीब 10 सालों से दीनानाथ के यहां काम कर रही है. नूरां के बाप को, परिवार को दीनानाथ जानते थे... पहले तो नूरां सफाई कर के चली जाती थी, पर जब दीनानाथ बीमार हुआ तो उस ने सारे दिन की जिम्मेदारी ले ली. पिछले 2 सालों से तो लगभग सारा काम कर रही है. उस के परिवार की बुरी हालत है, पति शराब की भेंट चढ़ गया, बेटा घर से भाग गया पर बेटी अच्छी है. उस की नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी हो चुकी है,’’ बख्शी ने कहा.