मंदिर पहुंचते ही फिर सती दादी का विचार मन पर हावी हो गया. जिन से वह कभी मिली नहीं थी, देखा भी नहीं था, उन से कुछ ही दिनों में न जाने कैसा तारतम्य स्थापित हो गया था. बारबार उन का चेहरा उस के जेहन में आ कर उसे बेचैन कर रहा था. वह मंदिर के सामने खड़ी हो कर मंदिर में लगी उन की तसवीर को निहारने लगी. तसवीर में वे 20-22 वर्ष से ज्यादा नहीं होंगी, चेहरे पर छाई भोली मुसकान ने उस का मन मोह लिया. वह कल्पना ही नहीं कर पा रही थी कि जब वे जली होंगी तो उन का यही चेहरा कितना वीभत्स हो गया होगा.
‘‘बेटी, तुम कभी विवाह नहीं करना और अगर विवाह हो गया है तो कभी कन्या को जन्मने नहीं देना,’’ पीछे से आवाज आई. आवाज सुन कर उस ने पलट कर देखा तो पाया सफेद बाल तथा झुर्रियों वाला चेहरा उस की ओर निहार रहा था. छवि को अपनी ओर देख कर उस ने अपनी बात फिर दोहराई.
‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’
‘‘मैं सच कह रही हूं बेटी, बेटी के दुख से बड़ा कोई दुख इस दुनिया में नहीं है.’’
हताश निराश औरत की दुखभरी आवाज सुन कर छवि का मन विचलित हो उठा. ध्यान से देखा तो पाया वह लगभग 80 वर्ष की बुढि़या है. वह मंदिर की दीवार के सहारे टेक लगा कर बैठी थी तथा उसी की तरह मंदिर को निहारे जा रही थी. चेहरे पर दर्द की अजीब रेखाएं खिंच आई थीं. उसे एहसास हुआ कि यह अनजान वृद्धा भी उसी की भांति किसी बात से परेशान है. इस से बातें कर के शायद उस के मन का द्वंद्व शांत हो जाए. वह नहीं जानती थी कि वह वृद्धा उस की बात समझ भी पाएगी या नहीं. पर कहते हैं मन का गुबार किसी के सामने निकाल देने से मन शांत हो जाता है, यही सोच कर वह जा कर उस के पास बैठ गई तथा मन की बातें जबान पर आ ही गईं.