अवसर पा कर मां से बात कही तो वे एकदम घबरा गईं. उन्होंने इधरउधर देखा, फिर उस का हाथ पकड़ कर कोने में ले गईं और संयत हो कर बोलीं, ‘‘क्या बकवास कर रही है, छवि?’’
‘‘मां, आप का व्यवहार देख कर लग रहा है, मेरी बातों में सचाई है. कम्मो, वह वृद्ध औरत जो सीता दादी की मां है और जिसे सब पगली कहते हैं, ने मुझ से जो कुछ भी कहा, वह सच है.’’
‘‘व्यर्थ के पचड़ों में मत फंसो. जो मुझ से कहा है वह घर में किसी अन्य से न कहना. हलदी की रस्म प्रारंभ होने वाली है, कपडे़ बदल कर वहां पहुंचो.’’ मां किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उसे आदेश देती हुई चली गईं.
दादाजी, जिन्हें वह सदा सम्मान देती आई थी, आज उसे दरिंदा नजर आने लगे- इंसान के रूप में खूंखार जानवर, जिन्होंने जायदाद के लिए अपने छोटे भाई की पत्नी को मरने को मजबूर किया, कम्मो को बरबाद किया. इन जैसे लोगों के लिए किसी का मानसम्मान कोई माने नहीं रखता, यहां तक कि जायदाद के आगे इंसानी रिश्तों, भावनाओं की भी इन के लिए कोई अहमियत नहीं है. वे अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं. पर उन से भी ज्यादा मां का व्यवहार उसे आश्चर्यजनक लग रहा था. वे शहर में महिला मुक्ति आंदोलन की संरक्षक हैं. जहां कहीं अत्याचार होते, वे अपनी महिला वाहिनी ले कर पहुंच जातीं हैं तथा पीडि़ता को न्याय दिलवाने का प्रयत्न करती हैं. पर यहां सबकुछ जानतेसमझते हुए भी वे मौन हैं. पर क्यों?
यह सच है कि यह घटना उन के सामने घटित नहीं हुई लेकिन उस वृद्धा को तो न्याय दिलवा सकती थीं जो अब भी न्याय की आस में भटक रही है. तो क्या वे दादाजी, अपने ससुर, के विरुद्ध आवाज उठातीं, अवचेतन मन ने सवाल किया, अगर वे ऐसा करतीं तो क्या उन का भी वही हाल नहीं होता जो उस वृद्धा का हुआ. और फिर वे सुबूत कहां से लातीं. किसी आरोप को सिद्ध करने के लिए सुबूत चाहिए. कौन दादाजी के विरुद्ध गवाही देता? आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि पापा जज होते हुए भी मौन रहे.