लेखिका- बिभा रंजन
रात का दूसरा प्रहर था. ट्रेन अपनी रफ्तार से गंतव्य की ओर बढ़ी चली जा रही थी. छवि ने धीरे से कंबल से झांक कर देखा, डब्बे में गहन खामोशी छाई थी. छवि की आंखों से नींद गायब थी. उस का शरीर तो साथ था पर मन कहीं पीछे भाग रहा था.
वह बीए फाइनल की छात्रा थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. उस की सहेली लता ने अपने घर में पार्टी रखी थी, वहीं छवि की मुलाकात रौनक सांवत से हुई थी. पहली ही मुलाकात में रौनक उसे भा गया. वह वकालत की पढ़ाई कर रहा था. उस ने स्वयं को शहर के एक प्रसिद्ध पार्क होटल का एकलौता वारिस बताया. जानपहचान कब प्यार में बदल गई, दोनों को पता न चला. दोनों ने साथ जीनेमरने की कसमें तक खा लीं.
रौनक के प्यार की मीठी फुहार दिनप्रतिदिन छवि को इतना भिगोती जा रही थी कि भोली छवि अपनी मां की बनाई ‘हां’, ‘न’ की मार्यादित लकीर की गिरफ्त से फिसल कर कब बाहर आ गई, उसे पता ही नहीं चला. जब पता चला तब पैर के नीचे से जमीन निकल गई. 2 महीने बाद फाइनल परीक्षा थी. छवि परीक्षा की तैयारी में जुट गई. परीक्षा के प्रथम दिन उस की तबीयत ख़राब लगने लगी. उस का शक सही निकला, वह गर्भवती थी.
उस ने रौनक से बात करने की बहुत बार कोशिश की. हर बार उस का मोबाइल आउट औफ रीच बता रहा था. दूसरी परीक्षा देने के बाद छवि सीधे पार्क होटल पहुंची, वहां किसी ने भी रौनक को नहीं पहचाना. छवि समझ गई, उस के साथ धोखा हुआ है. छवि भारीमन से घर लौट आई. अच्छी तरह से ठगी गई है, इस का एहसास अब उसे हो गया था. मोबाइल का लगातार न लगना भी संदेह की पुष्टि कर रहा था. अपने अल्हड़पन के गलत मोहपाश ने उसे कहीं का न रखा. वह चुपचाप कमरे में बैठी थी. सुखदा ने आ कर बत्ती जलाई.