दोनों अपनी बात पर अड़े हुए थे. संध्या का नाम सुनते ही आशा फोन काट देतीं.शाम को सुमित ने मम्मी को फोन मिलाया.‘‘हैलो मम्मी, क्या कर रही हो?’’‘‘कुछ नहीं. अब करने को रह ही क्या गया है बेटा?’’ आशा बु झी हुई आवाज में बोलीं.‘‘आप के मुंह से ऐसे निराशाजनक शब्द अच्छे नहीं लगते. आप ने जीवन में इतना संघर्ष किया है, आप हमेशा मेरी आदर्श रही हैं.’’‘‘तो तुम ही बताओ मैं क्या कहूं?’’‘‘आप मेरी बात क्यों नहीं सम झती हैं? शादी मु झे करनी है. मैं अपना भलाबुरा खुद सोच सकता हूं.’’‘‘तुम्हें भी तो मेरी बात सम झ में नहीं आती. मैं तो इतना जानती हूं कि संध्या तुम्हारे लायक नहीं है.’’‘‘आप उस से मिली ही कहां हो जो आप ने उस के बारे में ऐसी राय बना ली? एक बार मिल तो लीजिए. वह बहू के रूप में आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं देगी.’’‘
‘जिस के कारण शादी से पहले मांबेटे में इतनी तकरार हो रही हो उस से मैं और क्या अपेक्षा कर सकती हूं. तुम्हें कुछ नहीं दिख रहा लेकिन मु झे सबकुछ दिखाई दे रहा है कि आगे चल कर इस रिश्ते का अंजाम क्या होगा?’’‘‘प्लीज मम्मी, यह बात मु झ पर छोड़ दें. आप को अपने बेटे पर विश्वास होना चाहिए. मैं हमेशा से आप का बेटा था और रहूंगा. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनी पसंद आप के सामने व्यक्त की है.’’‘‘वह मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है. तुम इस बात को छोड़ क्यों नहीं देते बेटे.’’‘‘नहीं मम्मी, मैं संध्या को ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. मु झे उस के साथ ही जिंदगी बितानी है. मैं जानता हूं मु झे इस से अच्छी और कोई नहीं मिल सकती.’’