दीप्ति को एकाएक लगा मानों उस ने जो सुना वह उस के कानों का भ्रम था. भ्रम भी छोटामोटा नहीं बल्कि होश उड़ा देने वाला. इतना बड़ा भ्रम होना कोई छोटी बात नहीं. वह बेहद सदमे में थी. उस के वजूद की जड़ें हिल गईं. कुछ ही पल पहले जो पंख आसमान नाप रहे थे, अचानक जैसे किसी ने तीखे धारदार हथियार से चाक कर डाले और अब वह पंखविहीन गोते खाती पतंग सरीखी पथरीली जमीन की तरफ गिर रही है.
वह तय नहीं कर पा रही थी कि इसे कुदरत का खेल कहा जाए या खुद उस की नासमझी... मगर सच तो अजगर की तरह मुंह फाड़े उस के सामने खड़ा था और वह थी कि भय से आंखें चौड़ी किए अपने ऊपर झुके हुए कदम को घूर रही थी.
कदम चौहान... हां, यही तो वह नाम था जिस ने उसे गलतफहमी का शिकार बनाया. नहींनहीं नाम नहीं उपनाम कहना अधिक सही है. और फिर उस की कदकाठी भी तो उस के उपनाम से मेल खा रही थी. ऐसे में कोई भी धोखा खा सकता है. वह तो फिर भी एक कमउम्र नासमझ लड़की थी जिसे दुनिया अभी एक कटोरी जितनी ही बड़ी दिखती थी.
"घर से बाहर जा रही हो. बहुत से लोग आएंगे जिंदगी में. हमें तुम्हारी पसंद पर कोई ऐतराज भी नहीं होगा बशर्ते कि लड़का पानी मिलता हो," पहली पोस्टिंग पर झीलों की नगरी उदयपुर जाती दीप्ति को मां ने नसीहत दी थी. दीप्ति ने अचरज से मां की तरफ देखा मानों 'पानी मिलता' का मतलब पूछ रही हो.