लेखिका- डा. ज्योति गजभिये
अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी... ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.
‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.
‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.
अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.
‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.
वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’
‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’
‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’
अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे, ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.