जैसेएक जमाने में वर्षा की पहली बूंद पड़ते ही किसान हल निकाल कर अपने खेतों की ओर चल देते थे, ठीक उसी प्रकार 20-25 साल पहले पहली छींक की आवाज के साथ ही हर घर में महिलाओं व युवतियों के हाथों में सलाइयां नजर आने लगती थीं. छोटीबड़ी, मोटीपतली, रंगबिरंगी सलाइयां लगभग 7-8 माह तक हर परिवार की स्त्रियों के हाथों में दिखाई देती थीं. बच्चा चाहे गोद से छूट कर गिर जाए, चूल्हे पर चढ़ा दूध उफन कर पतीले से निकल जाए, पति बिना खाना खाए दफ्तर को चल दें, पर ये सलाइयां हाथों में जैसे चिपक सी जाती थीं. आज की सलाइयों की जगह मोबाइलों और लैपटौप ने ले ली है.
सलाइयों में एक विशेषता थी. ये भाले के साथसाथ कवच का भी काम करती थीं. मान लीजिए, बच्चों ने पति की कीमती ऐशट्रे तोड़ दी है और पति आगबबूला बने पूछते हैं, ‘‘किस ने किया है यह?’’
आवाज की कड़क से पत्नी जान जाती है कि अब लल्लू की खैर नहीं. साथ ही आंख के कोने से लल्लू को थरथर करती पीछे खड़ा देखती है. उसे मात्र एक मिनट का समय चाहिए बाहर भाग जाने को. बस, आप सलाइयों का कवच सामने कर देती हैं.
अचानक कुछ फंदे सलाई से निकल जाते और चेहरे पर भयंकर गंभीरता ओढ़े पत्नी उन्हें उठा रही होती थी. गरदन एक ओर ?ाक जाती थी. मेघना को हाथ के स्वैटर बुनना आज भी पसंद हैं. उस ने उस जमाने की भी और आज की भी ढेरों पत्रिकाएं जमा कर रखी हैं जिन में से वह डिजाइन ले कर मिटन, वूलन कैप, नी कैप, सौक्स आदि बनाती रहती है. मृदुल को उस का यह ओल्ड फैशन बिलकुल नहीं सुहाता खासतौर पर जब वह रात को बिस्तर में घुसता और मेघना सलाइयों में फंदे डालने में व्यस्त रहती. वह बहुत खीजता और कई बार तकिया उठा कर ड्राइंगरूम में सोफे पर पसर जाता.