अह्लमद कक्ष में आ कर निहाल चंद ने इधरउधर देखा. फिर कुरते के नीचे पजामे के नेफे में खोंसा शराब का अद्धा निकाल कर मेज के पीछे बैठे फाइल क्लर्क गोगी सरदार को थमा दिया. गोगी सरदार ने फुरती से अद्धा दरवाजे के पीछे छिपा दिया

फिर मुसकराते हुए बोला, ‘‘तड़का सूखा नहीं लगता.’’

निहाल चंद मुसकराया. उस ने अपनी जेब से 100 रुपए का नोट निकाल कर थमा दिया. मूक अभिवादन कर वह बाहर चला गया.

निहाल चंद ढाबा चलाता था. पिछले साल एसडीएम ने स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ उस के ढाबे का अकस्मात निरीक्षण किया था. आटे के कनस्तर में चूहे की बीट पाई गई थी. इसलिए नमूना लेने का आदेश दे दिया. भरपूर कोशिश करने के बाद प्रयोगशाला से सैंपल पास नहीं करवाया जा सका था और अब उस पर अदालत में मिलावट का केस चल रहा था.

जिस जज की अदालत में मुकदमा था वह सख्त और ईमानदार था. रिश्वत नहीं खाता था. इसलिए लेदे कर मामला नहीं निबट सकता था. मुकदमे का फैसला होने पर सजा निश्चित थी. इसलिए निहाल चंद जोड़तोड़ कर तारीखें आगे बढ़वा लेता था. कभी बीमारी का प्रमाणपत्र पेश कर देता था. कभी उस के इशारे पर खाद्य निरीक्षक गैर हाजिर हो जाता था. कभी संयोग से जज साहब छुट्टी पर होते थे तब वह दानदक्षिणा दे कर लंबी तारीख डलवा लेता था.

लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी? मुकदमा सरकारी था. लिहाजा वादी पक्ष द्वारा दबाव इतना नहीं था. किसी का निजी होता तो वह सुनवाई के लिए दबाव डालता. सरकारी मुकदमे हजारों थे. बरसों चलते थे. एक मुकदमे का फैसला होने तक दर्जन भर जज बदल जाते थे. चंटचालाक लोग जोड़तोड़ कर मुकदमा पहले लंबा खींचते थे फिर जब माहौल मनमाफिक हो जाता था यानी जज या मैजिस्ट्रेट पैसा खाने वाला या सिफारिश मानने वाला आ जाता था तब मामला निबटा लिया जाता था.

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