लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
दरवाजे पर से जेठजी के हटते ही सास बोलीं, ‘‘जा पहले कुछ खा ले. राघव भी तेरा इंतजार कर रहा होगा. मु झे पता है अपने पिता के पास ही वह रुक गया होगा. जाने कब से उस का इंतजार कर रहे थे वे, कह रहे थे कि राघव आ जाए तो उसे शादी की जिम्मेदारियां दे कर निश्ंिचत हो जाऊंगा,’’ सास की बातों से लग रहा था जैसे ऊधव पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं हो.
सास के कहने पर मैं वहां से उठ कर आंगन पार करती हुई सामने बाहरी बैठक की ओर इस आशय से जा ही रही थी कि राघव अभी बाबूजी के पास ही बैठा होगा, तभी दाहिनी तरफ बने कमरों के बाहर कवर्ड बरामदे में पड़ी बड़ी डाइनिंग टेबल के चारों ओर पड़ी 8 कुरसियों
में से एक पर बैठे जेठजी की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘अरे प्रशोभा,
इधर आओ.’’
मेरी नजर उधर गई तो देखा राघव भी वहीं बैठे हैं और मेज पर ताजी बनी नमकअजवायन की पूरियां, उबले आलू की सूखी सब्जी, अन्य प्लेटों में मठरियां, बालूशाही, बेसन के सेव और शकरपारे सजे रखे थे.
मैं भी जा कर वहीं बैठ गई. तभी किरण दीदी अपने 4 साल के बच्चे नितिन का हाथ पकड़े उसी बरामदे के पास बने एक कमरे से निकल कर आईं. मैं जब 2 साल पहले शादी हो कर इस घर में आई थी तो उसी कमरे में मेरी सुहागरात मनी थी और किरण दीदी को जीजाजी तथा दोनों छोटे बच्चों के साथ ऊपर वाले कमरे में टिकाया गया था. मां के कमरे को मिला कर 3 कमरे नीचे बने थे और 2 ऊपर. डाइंगरूम बाहर की तरफ अलग था.