वह काउंटर पर जा कर लौटा तो मैं ने उस की तरफ हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘चलती हूं...कभी सहसा संयोग बना तो फिर मिलेंगे...बहुत अच्छे हो तुम...अच्छे यानी जैसे भी हो...’’
उस ने मेरे बढ़े हुए हाथ को देखा... मुसकरा कर हाथ जोड़े और बोला, ‘‘हाथ नहीं मिलाऊंगा.’’
उस ने मेरे लौटते हुए हाथ को अपने हाथ में सहेज लिया और मेरे साथ चल पड़ा. हम आगे तक निकल गए.
‘‘क्या करती हैं आप?’’ बहुत देर बाद मेरा हाथ छोड़ कर उस ने पूछा.
‘‘गलती से साइकिएट्रिस्ट हूं. मनोविद या मनोचिकित्सक कहलाना बहुत आसान है. इस दुनिया में जीने के लिए फलसफे और मन के विज्ञान नहीं, अनाम प्रेम चाहिए...या मजबूरी में कोई मौलिक जुगाड़.’’
वह मेरे होटल तक आया और चुपचाप खड़ा हो गया. मैं सहसा हंस पड़ी. वह भी हंसा.
‘‘अब क्या करें?’’ मेरे मुंह से निकला.
‘‘अलविदा और क्या?’’ उस ने हाथ बढ़ाया.
‘‘मैं मन में उस लड़की की तसवीर बनाने की कोशिश करूंगी, जिसे उस रोज मुझे देख कर तुम ने याद किया था...’’ मैं ने उस का हाथ बहुत आहिस्ता से छोड़ते हुए कहा.
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‘‘कोई जरूरत नहीं...तिल भर का भी फर्क नहीं है. आप के पास आईना नहीं है क्या?’’ कह कर वह चला गया.
मैं देर तक ठगी सी खड़ी रह गई.
5 साल बीते होंगे अस्पताल की तीसरी मंजिल पर अपने दफ्तर में बैठी थी. दूसरे एक विभाग की इंचार्ज डा. सविता मेरे साथ थी. तभी उस की एक सहयोगी आ कर बोली, ‘‘डाक्टर...आप की वह 14 नंबर की मरीज...उसे आज डिस्चार्ज करना है, मगर उस के बिल अभी तक जमा नहीं हुए...आपरेशन के बाद से अब तक 25 हजार की पेमेंट बकाया है.’’