अस्पताल पहुंच कर ललितजी से बोलीं, ‘‘यह क्या हरकत की आप ने...’’ एकदम क्रुद्ध हो उठीं मृदुला, ‘‘फौजी महोदय रोज आते हैं, उन से कहलवा नहीं सकते थे आप? फोन नहीं कर सकते थे? इतना पराया समझ लिया आप ने मुझे...’’ बरसती चली गईं मृदुलाजी.
हंस दिए ललितजी, ‘‘तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था,’’ आवाज में लापरवाही थी, ‘‘असल बात यह है कि तुम्हें पता चलता तो तुम मुझ से ज्यादा परेशान हो जातीं. तुम्हारी परेशानी से मेरा मन ज्यादा दुखी होता...अपना दुख कम करने के लिए तुम्हें नहीं सूचित किया.’’
‘‘बेटीदामाद नहीं आते यहां? उन में से किसी को यहां रहना चाहिए,’’ मृदुला बोलीं.
‘‘सुबहशाम आते हैं. जरूरत की हर चीज दे जाते हैं. नर्स और डाक्टरों से सब पूछ लेते हैं. नौकरी करते हैं दोनों. कहां तक छुट्टियां लें? फिर वे यहां रह कर भी क्या कर लेंगे? इलाज तो डाक्टरों को करना है,’’ ललितजी ने बताया.
‘‘अब मैं रहूंगी यहां...’’ मृदुलाजी बोलीं तो हंस दिए ललित, ‘‘क्या करोगी तुम यहां रह कर? नर्स साफसफाई करती है. डायटीशियन निश्चित खाना देती है. नर्सें ही डाक्टरों के बताए अनुसार वक्त पर दवाएं और इंजेक्शन देती हैं. सारा खर्च बेटीदामाद अस्पताल में जमा करते हैं...तुम क्या करोगी इस में? व्यर्थ लोगों की नजरों में आओगी और बेमतलब की बातें चल पड़ेंगी, जिन से मुझे ज्यादा तकलीफ होगी...तुम जानती हो कि मैं सबकुछ बरदाश्त कर सकता हूं पर तुम्हारी बदनामी कतई नहीं सह सकता... अपनेआप से ज्यादा मैं तुम्हें मानता हूं, यह तुम अच्छी तरह जानती हो...’’
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