चींटी की गति से रेंगती यात्री रेलगाड़ी हर 10 कदम पर रुक जाती थी. वैसे तो राजधानी से खुशालनगर मुश्किल से 2 घंटे का रास्ता होगा, पर खटारा रेलगाड़ी में बैठे हुए उन्हें 6 घंटे से अधिक का समय हो चुका था.
राजशेखरजी ने एक नजर अपने डब्बे में बैठे सहयात्रियों पर डाली. अधिकतर पुरुष यात्रियों के शरीर पर मात्र घुटनों तक पहुंचती धोती थी. कुछ एक ने कमीजनुमा वस्त्र भी पहन रखा था पर उस बेढंगी पोशाक को देख कर एक क्षण को तो राजशेखर बाबू उस भयानक गरमी और असह्य सहयात्रियों के बीच भी मुसकरा दिए थे.
अधिकतर औरतों ने एक सूती साड़ी से अपने को ढांप रखा था. उसी के पल्ले को करीने से लपेट कर उन्होंने आगे खोंस रखा था. शहर में ऐसी वेशभूषा को देख कर संभ्रांत नागरिक शायद नाकभौं सिकोड़ लेते, महिलाएं, खासकर युवतियां अपने विशेष अंदाज में फिक्क से हंस कर नजरें घुमा लेतीं. पर राजशेखरजी उन के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर ठगे से रह गए थे. उन के परिश्रमी गठे हुए शरीर केवल एक सूती धोती में लिपटे होने पर भी कहीं से अश्लील नहीं लग रहे थे. कोई फैशन वाली पोशाक लाख प्रयत्न करने पर भी शायद वह प्रभाव पैदा नहीं कर सकती थी. अधिकतर महिलाओं ने बड़े सहज ढंग से बालों को जूड़े में बांध कर स्थानीय फूलों से सजा रखा था.
तभी उन के साथ चल रहे चपरासी नेकचंद ने करवट बदली तो उन की तंद्रा भंग हुई.
‘यह क्या सोचने लगे वे?’ उन्होंने खुद को ही लताड़ा था. कितना गरीब इलाका है यह? लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र तक नहीं है. उन्होंने अपनी पैंट और कमीज पर नजर दौड़ाई थी...यहां तो यह साधारण वेशभूषा भी खास लग रही थी.